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________________ ५०० प्राकृतपैंगलम् प्राकृतपैंगलम् के कतिपय समस्त पद निम्न हैं : (१) वे समस्त पद जिनमें संबंधकारक का शुद्ध प्रातिपदिक रूप मानकर पदों की असमस्त प्रवृत्ति भी मानी जा सकती है। ये मूलतः संस्कृत के षष्ठी तत्पुरुष हैं। अंधअगंधविणासकरु, अंधआरसंहएण, अंबरडंबरसरिस, असुरकुलमद्दणा, असुरविलअकरु, कव्वलक्खणह, कमठपिट्ठ, कमलगण, कामरूअराअवंदि, कासीसराआसरासार, कुसुमसमअ, कुसुमाअरु, कुइलगण, केअइधूलि, तरुणिकडक्खम्मि, दोहाकक्खण, पंडिअअणचित्तहलो, पाइक्कवहा, पिअणिअलु, फणिराअ, फणीसरु, फणिसेहरा, भुअणभअकरणा, मलयगिरिकुहर, मलअणिवइ, विपक्खकुलकाल । (२) वे समस्त पद जिन्हें संस्कृत टीकाकारों ने द्वन्द्व समास माना है। हमारे मत से इन्हें समस्त पद नहीं मानना चाहिए तथा प्रत्येक पद को शुद्ध प्रातिपदिक रूप मानकर वाक्य में तत्तत् प्रसंग में इनका स्वतंत्र अन्वय करना ठीक होगा। इनमें कुछ तो नि:संदेह समास हैं ही, जहाँ सभी का अन्वय किसी उत्तर पद से होता है, जैसे 'अस-णर-गअवई' । अन्य समस्तरूप जिन्हें समास न मानना ठीक होगा, निम्न कोटि के हैं : किवाण बाण सल्ल भल्ल चाव चक्क मुग्गरा, केसु असोअ चंपअ, जोव्वण देह धणा, केअइ चारुचंपअ चूअ मंजरि वंजुला । ___इन समासों में अंतिम पद का 'आ' बहुवचन विभक्ति न होकर छन्द की सुविधा के लिए किया गया दीर्घरूप जान पड़ता है। (३) अन्य प्रकार के समस्त पद, जिन्हें वास्तविक समस्त पद माना जा सकता है, निम्न कोटि के हैं। इस कोटि में हम उपमित समास, बहुब्रीहि समास आदि को लेंगे। इस संबंध में इतना संकेत कर दिया जाय कि कर्मधारय समस्त रूपों को भी हम स्वतंत्र दो पद मान सकते हैं। कमलणअणि, कमलदलणअणि, गअवरगमणि-गमणी, खलिअथणवसणा, चलकमलणअणिआ, भिण्णमरट्ठो, सुरसेविअचरणं । प्रा० पैं० में 'अहिवरलुलिअं' जैसे अव्ययीभाव समास बहुत कम है, एक अन्य समास 'जहिच्छं' (यथेच्छं) है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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