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________________ ४९८ प्राकृतपैंगलम् भायाणी जी को एक स्थल मिला है :- 'विरहहुयासि दहेवि करि, आसाजल सिंचेइ' (विरह की अग्नि में दग्ध कर आशाजल से सींच रहा है) (१०८), जहाँ 'दहेवि करि' वस्तुतः 'दग्ध्वा कृत्वा' का रूप है। ढोला मारू रा दोहा में भी पूर्वकालिक क्रिया के संयुक्त रूप देखे जाते हैं, जहाँ कै, कइ, करि, नइ, नई जोड़े जाते. हैं ।' क्रियाविशेषण तथा अव्यय ६ ११६. प्राकृतपैंगलम् की भाषा में निम्न अव्ययों का प्रयोग पाया जाता है। (१) संबोधनबोधक अव्यय. अरे; अरेरे, अहो, रे हे. (२) निषेधवाचक अव्यय. ण. जणु. (३) स्वीकारवाचक अव्यय. अवसउ. (४) संबंधवाचक अव्यय (कन्जुगेशन्स) -अ, आ, च, अवरु (सं० अपरं; हि. और), इ, इअ, एअं. (५) अन्य अव्यय -इ, इअ, पुण, पुणु, पुणि, पुणो, किल, पुणवि, पुण विअ, पुणुवि, अह, अणहा, चिरं, हु, ण –णं (ननु), जु, अद्धा. (६) सार्वनामिक अव्यय (क) 'यत्' से संबद्ध-ज, जं, जत्थ, जव-जवउ, जाव (यावत्), जहिँ-जही-जेहा-जहा-जेहि, जिम-जिमिजेमं, जह, जइ (यदि). (ख) 'तत्' से संबद्ध-तं' तआ, तत्थ, तत्था, तह-तहअ-तहवि-तहविहु, तहा, तत. (ग) 'कि' से संबद्ध-कव, कवहु, कहुँ, काइँ, केसे, कहिआ (कदा). (घ) 'एतत्' से संबद्ध-एत्थ, एम. (७) संज्ञापदों से निर्मित अव्यय-खण, खणो, अहंणिसं, लहु. (८) अन्य पदों से निर्मित अव्यय-अज्जु, णिच्च-णित्ता (नित्यं), णिह-णिहुअ (निभृत), भित्तरि (अभ्यंतर), णिअल (निकटे), परहि (परतः), परि, पासे (पाधै), अग्गे (अग्रे), पुर (पुरतः), फुर, बहुत्त. (९) अनुकरणात्मक अव्यय-झत्ति (झटिति). (१०) उपमावाचक अव्यक-णाइ (हि० नाइँ). उपर्युद्धत अव्ययों में चार तरह के अव्यय पाये जाते हैं (१) किसी भी प्रत्यय चिह्न से रहित; (२) उ-अं प्रत्यय वाले अव्यय, जैसे पुणु, अज्जु, अहंणिसं आदि, (३) इ प्रत्यय वाले अव्यय, जैसे पुणि, जिमि, परि, आदि, (४) "ए प्रत्यय वाले रूप, जैसे 'पासे' । इनमें द्वितीय 'उ-अं' प्रत्यय क्रमशः अप० कर्ता-कर्म, प्रा० कर्म के प्रत्यय हैं; 'इ प्रत्यय अप० में करण-अधिकरण ए० व० का प्रत्यय है, तथा °ए प्राकृत (संस्कृत) अधिकरण ए० व० का प्रत्यय है। यह तथ्य इस बात का संकेत करता है कि कई अव्ययों का मूल विकास सविभक्तिक सुबंत रूपों से हुआ है । संस्कृत में भी उच्चैः, नीचैः, दूरात्, मध्ये, उपरि, आदि अव्यय मूलतः सविभक्तिक सुबंत रूप ही है, जो घिस-घिसा कर अव्यय रह गये हैं। समास ११७. संस्कृत में समास की जटिल प्रक्रिया पाई जाती है। प्राकृत में आकर यह प्रक्रिया सरल हो गई है। पिशेल ने 'ग्रामातीक देर प्राकृत स्प्राखेन६६०३' में बताया है कि संस्कृत समास-प्रक्रिया में प्राकृत में आकर परिवर्तन हो गया है। यही कारण है, कि प्राकृत में 'कृतधवलोपवीत' के लिए *कअधवलोअवीअ' रूप न मिल कर 'धवलक ओपबीअ रूप मिलता है। इसी तरह 'दुःसहविरहकरपत्रस्फाल्यमाने' का प्राकृत रूप “विरहकरपत्तदूसहफालिज्जंतम्मि', तथा 'कंचुकमात्राभरणः' के लिए 'कंचुआभरणमेत्तो' जैसे रूप मिलते हैं। प्राकृत काव्यो के सं० टीकाकारों ने सदा इस बात का संकेत किया है कि प्राकृत में संस्कृत की तरह समास में पूर्वनिपात के नियम की पाबंदी नहीं की जाती- “प्राकृते पूर्वनिपातानियमात्" । १. ढोला मारू रा दोहा (भूमिका) पृ० १६२. (ना० प्र० सभा, काशी) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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