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प्राकृतगलम् होर्नली ने इसका सम्बन्ध द > ल से जोड़ा है, किन्तु यह व्युत्पत्ति संदिग्ध है। बीम्स ने इसका सम्बन्ध स्लाव भाषा-वर्ग के भूतकालिक (preterite) °ल से माना है। किन्तु टेसीटोरी ने चार्ल्स ल्याल, भंडारकर तथा कोनो के आधार पर इसका संबन्ध प्राकृत 'ल्ल' से जोड़ा है । प्राकृत का 'ल' (-इल्ल, एल्ल) वस्तुतः कृदन्त प्रत्यय न होकर तद्धित प्रत्यय है, पर इसका प्रयोग जैन महाराष्ट्री में भूतकालिक कृदन्तों में भी पाया जाता है, 'आगएल्लिआ' (आई), 'वरेल्लिया' (वरणाता), 'छडिपलयं' (छिन्न), आणिल्लिय (अर्धमागधी, लाया) । निष्ठा कृदन्त रूपों में -ल्ल का प्रयोग कथ्य प्राकृत की वैभाषिक विशेषता रहा है, यहीं से यह पूरबी भाषाओं में आया है तथा इसके छुटपुट बीज पुरानी राजस्थानी में भी मिल जाते हैं:सुणिल्ला, कीधलँ ।
(९) •ण्हउ वाले रूप :- इसके दो रूप मिले हैं :- दिण्हउ (१.१२८), लिण्हउ (१.१२८) । इनका संबंध 'ण < 'न वाले रूपों से है, जिनके ये सप्राण (एस्पिरेटेड) रूप हैं, °ण्हउ = °ण्ह + उ = "ण (+ह) + उ । इस तरह इसमें 'ण' तथा 'उ' दो प्रत्यय एक साथ मिलते हैं । इसका 'न्ह' (< ण्ह) रूप राज०, अवधी में भी मिलता है :'सगुणी-तणा सँदेसडा कही जु दीन्हा आणि' (ढोला मारू रा दोहा ३४४), दीन्हा उत्तर महीप वियोगी (नूरमुहम्मद पृ० २५) भविष्यत्कालिक कर्मवाच्य कृदन्त
११४. प्रा० पैं. की भाषा में भविष्यकालिक कर्मवाच्य कृदंत के केवल दो स्थल मिले हैं :(१) जाणिव्वउ (१.४९), (२) सहब (१.१६६) ।
'व्वउ, "ब इन दोनों कृदंत प्रत्ययों का संबंध सं० तव्य > अव्व > व्वउ > ब-व के विकास से है। पूरबी हिंदी में 'ब' का प्रयोग भविष्यत्कालिक अर्थ-द्योतन के लिये पाया जाता है। (दे० प्राकृतपैंगलम् (१.१६६) की टिप्पणी पृ० १४४). पूर्वकालिक क्रिया (एब्सोल्यूटिव्ज़)
११५. प्रा० भा० आ० में इसके प्रत्यय 'त्वा' (अनुपसर्ग क्रियाओं के साथ) तथा 'ल्यप्' (य) (सोपसर्ग क्रियाओं के साथ) थे। प्राकृत में आकर 'त्वा' का विकास ''त्ता'; वंदित्ता (अर्धमा०), पिवित्ता, उद्वित्ता, (दे० पिशेल ५८२) के रूप में पाया जाता है, जो प्रायः जैनमहाराष्ट्री तथा अर्धमागधी में मिलता है। अर्धमागधी में °त्ताणं प्रत्यय भी पाया जाता है, जिसकी उत्पत्ति पिशेल ने कल्पित वैदिक रूप *°त्वानं से मानी है :- भवित्ताणं, वसित्ताणं, विदित्ताणं (दे० पिशेल ६ ५८३) । अर्धमागधी में इसका वैकल्पिक रूप "तुआणं भी मिलता है :- घेत्तुआणं, भेत्तुआणं, मोत्तुआणं (वही $ ५८४) । इसी *त्वानं से विकसित रूप महाराष्ट्री के तूण, ऊण तथा शौरसेनी के दूण माने गये हैं :- घेतूणघेऊण (म०); भोदूण, होदूण, पढिदूण (शौ०) आदि । वैसे संस्कृत नाटकों में शौरसेनी तथा मागधी में भी तूण-ऊण रूप मिलते हैं (दे० पिशेल ६ ५९३), साथ ही प्राकृत में इअ प्रत्यय भी जाते हैं । (दे० पिशेल $ ५९४)
अपभ्रंश में पूर्वकालिक क्रिया में वैयाकरणों ने कई प्रत्यय माने हैं :
१. एप्पि, एपि, -एप्पिणु, -एपिणु, -एविणु, -इवि, -अवि, -णि -पि, -वि, -पिणु (दे० पिशेल ६ ५८८, टगारे $ १५१), इन सबका संबंध त्वि०-त्वीनं से जोड़ा जाता है।
२. “इअ (इय), "इउ, “इ-इनका संबंध 'य' (ल्यप्) से हैं।
संदेशरासक में "इवि ३४, अवि २७, "एवि ५, एविणु ११, इ , इय २, “इउ १, 'अप्पि १, रूप पूर्वकालिक कियारूपों में पाये जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि संदेशरासक में 'इवि, °अवि तथा °इ वाले रूप ही प्रमुख हैं। (दे० भायाणी : संदेशरासक भूमिका ६ ६८) उक्तिव्यक्तिप्रकरण की पुरानी पूर्वी हिंदी (रानी कोसली) में °इ वाले रूप पाये जाते हैं :धरि, देइ, छारि, न्हाइ, पूजि, पढि, ओलगि (११ । १३) । कुछ स्थानों पर यह 'इ, °अ में परिवर्तित हो गया है :- 'जिण' (३४ । ९) < जित्वा ।
प्रा० ० की भाषा में संदेशरासक की तरह पूर्वकालिक क्रिया के अनेक रूप नहीं मिलते । वस्तुतः संदेशरासक
१. Tessitori : O. W. R. $ 126 (5)
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