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________________ पद-विचार ४९५ (४) ई (स्त्रीलिंग रूप) < "इअ < 'इत ("त) : इसका केवल एक रूप 'कही' (२.७, २.५२) < कहिअ < म० भा० आ० कहिआ < कथिता, मिला है। इस तरह के रूप संदेशरासक में भी मिले हैं :- 'चडी, विबुद्धी, तुट्टी' (दे० संदेशरासक $ ६७) । (५) °आ (तथा इसके तिर्यक् ए वाले रूप) :- °आ वाले बहुत कम रूप प्रा० पैं० में मिले हैं :- पाआ (१.१३०) < प्राप्तं, (टंकु एक्क जइ सेंधव पाआ (हि० पाया) । ये खड़ी बोली हिन्दी के °आ (या) वाले निष्ठा रूपों के बीज का संकेत कर सकते हैं । दक्खिनी हिन्दी में °आ (या) वाले निष्ठा रूप देखे जा सकते हैं : १. खुदा का हुआ खेल कैसा देखी । २. काम बहोत खास किया हूँ। ३. जिसे ख़ुदा दिया सफ़ाई उसे आई ॥ इसके तिर्यक् ("ए वाले) रूप भी प्रा० पैं० में मिलते हैं :- चले (१.१४५), पले (१.१४५) । ये ए वाले ब० व० के तिर्यक् रूप खड़ी बोली के निष्ठा तथा भूतकालिक रूपों की खास विशेषता है । दक्खिनी हिन्दी में इनके चिह्न देखे जा सकते हैं : साहब आस्मान जमीन ने फर्माये । हजूर बुलाय पान दिये और फर्माये । क्या वली क्या नबी सिजदा किये उस ठार सभी । उनो ने अपना नफा खींचे । (६) उ वाले रूप :- प्रा० पैं० में धातु के साथ °उ जोड़ कर बनाये गये निष्ठा रूप भी देखे गये हैं, इनका विकास अउ वाले अप० निष्ठा रूपों से हुआ है। उदाहरण ये हैं :- अवअरु वसंत (१.१६३ < अवतीर्णः वसंतः), हणु (१.१८५), पाउ (१.१८८), धाइउ (१.१९३), भउ (स्त्रीलिंग < भूता २.१३४), गेण्हु (< गृहीतः २.१४७), गढु (स्त्रीलिंग < घटिता २.१५३), ढुक्कु (२.१७३), लुकु (२.१७३), लग्गु (२.१७३), आउ (२.२०३) < आयातः । ___ (७) संस्कृत रूपों से ध्वनिनियमों के आधार पर विकसित अपवाद या अनियमित (इर्रेग्युलर) रूप, दिट्ठो (१.१८७, २.३३) < दृष्टः (प्राकृत रूप), दिट्ठ, (२.१९), उक्किट्ठ (२.१९) < उत्कृष्ट, पअट्ट (२.१५९) < प्रदष्ट, दिण्णा (२.११२) < दत्ता ("दिद्ना), संस्कृत से विकसित फुल्ल (१.१८७) < फुल्ल (इनके साथ ही दो रूप ऐसे भी मिले हैं, जो संस्कृत से विकसित अनियमित रूप ही हैं, पर उनमें अप० के इअ, 'अउ प्रत्यय भी लगे हैं : दि8िअ (२.९९) < दृष्टा (स्त्रीलिंग), विरुज्जउ (२.१४९) < विरुद्धः (ज्झ < द्ध) । __एक रूप नपुंसक लिंग का भी मिला है, जो संस्कृत रूप से ही विकसित है, भूअं (२.३३) < भूतं (अर्ध तत्सम रूप) । (८) °ल वाले रूप :- °ल वाले निष्ठा रूपों का संकेत हम पूर्वी अपभ्रंश के संबंध में कर चुके हैं। ये सब रूप पूर्वी न० भा० आ० भाषाओं की खास विशेषता है, किंतु ये मराठी, गुजराती, व राजस्थानी में भी हैं। वर्णरत्नाकर में ये रूप देखे जाते हैं :- 'भमर पुष्पोद्देशे चलल' (२९ बी), पथिक-जने मार्गानुसंधान कएल (३० ए), नायक पएर पखालल (७६ बी)। विद्यापति में भी ये रूप मिलते हैं :- कएल माधव हमे अकाज (१ बी), सुपुरुषे पाओल सुमुखि (५ ए), रयनि गमाओलि (४० ए)। यह 'ल वाली प्रवृत्ति निष्ठा रूपों में मैथिली में ही नहीं, भोजपुरी में भी पाई जाती है, 'सुनाइल्, पिटाइल, मराइल' । अवधी में जो छुटपुट 'ल रूप मिलते हैं, वै वस्तुतः बिहारी से लिये गये हैं। पर ल- वाले निष्ठा रूप पुरानी पश्चिमी राजस्थानी में भी मिलते हैं। १. सक्सेना : दक्खिनी हिन्दी पृ० ५६-५७ २. Varnaratnakara (Intro.) 846 (2), $52 (2) ३. Dr. Subhadra Jha : Vidyapati (Intro.) p. 168 ४. तिवारी : भोजपुरी भाषा और साहित्य ६ ६२५, पृ० २९३ ५. Saksena : Evolution of Awadhi $ 299, p. 254 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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