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प्राकृतपैंगलम् भविष्यत्कालीन प्रयोग पूर्वी हिंदी की निजी विशेषता है। दक्खिनी हिंदी में अवश्य गा-गे-गी वाले रूपों के साथ ही साथ थोड़े-स वाले रूप भी मिलते हैं :- निकल , लेसँ, खुदा को इस नजर सों देखा न जासी । प्राकृतपैंगलम् में भविष्यत् के रूप बहुत कम मिले हैं । ये निम्न हैं :
जइहि < यास्यति (२.१४४), प्र० पु० ए० व०. आविह < आगमिष्यति (२.९१).
आवे ( < आवहि < आयास्यति २.८१). भूतकाल
6 १०७. प्राकृत में आकर प्रा० भा० के भूतकालिक तिङन्त रूप (लङ् लुङ् तथा लिट् वाले रूप) बहुत कम रह गये हैं। पिशेल ने भूतकाल के कतिपय तिडन्त रूपों का संकेत 'ग्रामातीक देर प्राकृत स्प्राखेन' के 88 ५१५, ५१६, ५१७ में किया है। पर हम देखते हैं कि प्राकृत में ही निष्ठा वाले कृदन्त रूपों के साथ साथ सहायक क्रिया जोड़ कर भूतकाल की व्यंजना कराई जाने लगी थी। इस प्रकार प्राकृत में ही सहायक क्रिया का भूतकालिक रूप 'आसि' निष्ठा रूपों के साथ जुड़ कर एक नई शैली को जन्म दे चुका था- 'तुम खु.... गदा आसि' (शौर०) (मृच्छकटिक) । अपभ्रंश में आकर निष्ठावाले रूपों का प्रयोग ही भूतकाल में पाया जाता है, जिसके साथ Vअस् या Vभू के भूतकालिक रूप को या तो स्पष्टतः जोड़ा जाता था, या वह आक्षिप्त रहता था। प्रायः उसका प्रयोग न कर आक्षेप ही किया जाता था। अपभ्रंश में जहाँ कहीं 'अहेसि' < अभूत् (सनत्कुमारचरित ४४७.८), णिसुणिउं < न्यश्रुण्वम् (महापुराण २.४.१२), सहु < असहे, जैसे रूप मिलते हैं, वे प्राकृत का ही प्रभाव हैं ।
प्राकृतपैंगलम् में भूतकाल के लिए निष्ठा प्रत्यय (या कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत) का ही प्रयोग पाया जाता है। इसके उदाहरणों के लिए दे० ६ ११३ । विधि प्रकार
१०८. प्राकृत काल में प्रा० भा० आ० विधि प्रकार के चिह्न 'या' का (जो वस्तुतः विधि लिङ् का चिह्न न होकर आशीलिङ्का चिह्न है) दुहरा विकास पाया जाता है :- एय्य तथा एज्ज । परनिष्ठित प्राकृत तथा परिनिष्ठित अपभ्रंश में 'एज्ज' वाले रूप ही पाये जाते हैं। (दे० पिशेल ४५९) वैसे पिशेल ने करय्य, (६४६२) करेय्याम' (४६३) जैसे 'एय्य' रूपों का भी संकेत अवश्य किया है, जो वैभाषिक प्रवृत्ति का संकेत करते हैं । ये 'एय्य-एज्ज' ही 'इय्यइज्ज' के रूप में विकसित हो गये हैं, तथा अपभ्रंश में हमें -'इज्ज वाले रूप मिलते हैं। (दे० टगारे १४१) इस संबंध में इतना संकेत कर दिया जाय कि अपभ्रंश में आकर कर्मवाच्य तथा विधि प्रकार वाले रूप इतने सदृश पाये जाते हैं कि कभी कभी उनकी भेदक रेखा का पता नहीं चल पाता । हम देखते हैं, दोनों का विकास 'इज्ज पाया जाता है।
कर्मवाच्य य > एय्य-एज्ज > इय्य-इज्ज विधि प्रकार L या > एय्य-एज्ज > इय्य-इज्ज
विधि प्रकार के रूपों में प्राय: वे ही ति चिह्न जडते हैं, जो आज्ञा में पाये जाते हैं। अपभ्रंश में ये रूप प्रायः प्रथम तथा मध्यम पु० ए० व० के ही मिलते हैं :
प्रथम पु० ए० व०; विरइज्जइ, संतोसिज्जइ, वंदिज्जइ. संदेशरासक में 'इज्जइ के स्थान पर इज्जउ रूप मिलते हैं :- लज्जिज्जउ ।। मध्यम पु० ए० व०; अच्छिज्जइ, अच्छिज्जहु,
१. Uktivyaktis 77. तिवारी : भोजपुरी भाषा और साहित्य $ ५३६-३७, पृ० २७३ २. सक्सेना : दक्खिनी हिंदी पृ० ५९ 3. Tagare $ 140, p. 312 8. Bhayani : Sandesrasaka (Study) $ 65, p. 37
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