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प्राकृतपैंगलम् > करउँ (दे० उक्तिव्यक्ति की भूमिका पृ० ५७) ।
इन. दोनों रूपों में मि वाले रूप प्राकृतीकरण हैं, "उँ–'उ वाले रूप अपभ्रंश के निजी रूप हैं । संदेशरासक में इन दोनों रूपों का अनुपात ३:२३ है, इससे स्पष्ट है कि वहाँ "उँ-"उ वाले रूपों का ही बाहुल्य है। उक्तिव्यक्तिप्रकरण में 'करउँ' जैसे उँ वाले रूप ही मिलते हैं। यह इस बात को सिद्ध करता है, कि १२ वीं शती में "मि वाले रूप कथ्य भाषा की विशेषता नहीं रहे थे । इससे यह भी पुष्ट होता है कि प्रा० पैं० में भी इनका अस्तित्व प्राकृतीकरण का प्रभाव है।
अपभ्रंश के अउँ– अउ का ही विकास प्रायः न० भा० आ० भाषाओं के वर्तमान उत्तम पुरुष ए० व० के तिङ् चिह्न के रूप में हुआ है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी में इसके उँ, तथा 'यूँ ("ऊँ का सश्रुतिक रूप) पाये जाते हैं। संभवत: यह भेद वैभाषिक है। कान्हडदेप्रबंध की लिपि-शैली में इसके वू, अयूँ (म) रूप भी मिलते हैं :
(१) सरस बंध प्राकृत कवू द्यउ मुझे निर्मल मत्ति । (कान्हडदेप्रबंध, १.१) (२) वासुदेव धुरि वीनतूं जिम पाD मन रंग । (कान्हडदेप्रबन्ध, १.३) (३) हम्मीररायनी परि आदरूँ नाम अम्हारउं ऊपरि करउँ । (वही, ३.१७५) ढोला मारू रा दोहा में "उँ वाले रूप मिलते हैं, जो इसी रूप में कथ्य राजस्थानी की सभी भाषाओं में पाये जाते हैं :(१) सूती मंदिर खास, जाD ढोलइ जागवी । (ढोला, ५०७). (२) जद जागूं तद एकली, जब सोऊँ तब बेल । (वही, ५१०). (३) बाबा, बाळ देसड़उ, जिहाँ डूंगर नहि कोइ । (वही, ३८६).
ब्रज तथा अवधि में भी इसके अउँ रूप मिलते हैं । अवधी में औं < अऊँ रूप भी पाये जाते हैं, जिसके कुछ रूप नूर मुहम्मद में मिलते हैं।
तातें मइ तोहि बरजउँ राजा; आजु सहि मारउँ ओही (तुलसी)। 'बरनों राजा की फुलवारी' (नूर मुहम्मद). (दे० सक्सेना 8 ३०१, पृ० २५४-५५).
खड़ी बोली के वर्तमान-आज्ञा के उत्तम पुरुष ए. व० रूपों का विकास इसी से हुआ है :-'मैं चलूँ' (पू० राज० म चालूँ, प० राज० हूँ चालूँ) ।
प्राकृतपैंगलम् की पश्चिमी हिन्दी में वर्तमान उत्तम पुरुष ए० व० के निम्न रूप हैं :(१) “मि वाले रूप :- पेक्खामि (१.६९), भणमि (१.२०५).
(२) "उँ - उ वाले रूप :- पिंघउ (१.१०६), धसउ (१.१०६), उड्डुउ (१.१०६), भमउ ((१.१०६), झल्लउ (१.१०६), अप्फालउ (१.१०६), जलउ (१.१०६), चलउ (१.१०६), पावउँ (१.१३०), पकावउँ (१.१३०), वारिहउ (१.१३५), जिवउ (२.६३), तजउ (२.६३), परिपूजउ (२.१५५).
__एक स्थान पर संस्कृत का शुद्ध रूप 'वंदे' (१.८२) (मैं वंदना करता हूँ) भी मिलता है, जो प्रा० पैं. की पुरानी हिन्दी की निजी विशेषता नहीं माना जा सकता । (६) उत्तम पुरुष ब० व०
प्राकृत में इसका तिङ् विभक्ति चिह्न 'मो (< प्रा० भा० आ० °म: < आ० भा० यू० *मेस् - मास्) है, जिसका पद्य में ''मु' तथा 'म रूप भी मिलता है। (दे० पिशेल ४५५, पृ० ३२२) अपभ्रंश में इसका 'हुँ रूप मिलता है :वट्टहँ (=*वर्ताम:=वर्तामहे) । इस हुँ ( अहुँ) की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में बड़ा मतभेद हैं। होर्नली के मतानुसार 'अहुँ वस्तुतः °अउँ < प्रा० अमु का सप्राण रूप है, जहाँ इसे उत्तम पुरुष ए० व० के °अउँ से भिन्न रखने के लिए -ह जोड़ दिया गया है। साथ ही यह अन्य पुरुष अहिँ के सादृश्य का भी प्रभाव है। (होर्नली : कम्पेरिटिव ग्रामर आव् गौडियन लेंग्वेजेज ६ ४९७) कावेल ने अपभ्रंश में अम्हो- अम्ह (हसम्हो, हसम्ह) को उत्तम पु० ब० व० के वैकल्पिक १. Sandesarasaka : (Study) 862 २. Uktivyakti : (Study) $ 71, p. 56
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