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________________ ४३७ ध्वनि- विचार से सभी अपभ्रंश कवियों में इस प्रवृत्ति के प्रचुर निदर्शन मिल जाते हैं, किंतु इस काल में भी परिनिष्ठित प्राकृत छन्दों में यह स्वतन्त्रता नहीं बरती जाती थी, इसका प्रमाण डा० याकोबी का निम्न कथन है। : "Often for the exigency of metre the poet would change the quality of a syllable - a freedom which is allowed only in Ap. poetry; because in pkt. the metrical measurement of words is rigid in a very high degree and Haribhadra has cared to preserve it strictly in his pkt. poems. His poetic freedom is, therefore, based finally upon the linguistic pecularity of Ap. itself and its varying metrical arrangement." प्राकृतपैंगलम् के अपभ्रंश एवं पुरानी हिंदी वाले छंदों में इस स्वतन्त्रता का समुचित उपयोग किया गया है । ५९. छन्दोजनित दीर्घीकरण :- छन्दोनिर्वाह के लिये लघु अक्षर को दीर्घ या गुरु बना देने की प्रवृत्ति प्रायः सभी अपभ्रंश काव्यों में देखी जाती है । यह दीर्घीकरण तीन तरह का पाया जाता है : - (१) ह्रस्व स्वर को दीर्घ बनाकर, (२) सरल व्यंजन को द्वित्व करने से पूर्ववर्ती ह्रस्व स्वर को दीर्घ बनाकर, (३) निष्कारण अनुस्वार जोड़ कर । प्रा० पैं० की भाषा में इन तीनों प्रक्रियाओं का प्रयोग मिलता है : (१) ह्रस्व स्वर का दीर्घीकरण : णाआ राआ (१.११९= णाअ राअ), धित्ता (१.१३० = घित्त), णित्ता (१.१३० = णित्त), चारिदहा (१.१३१ = चारिदह ), पमाणा (१.१४५ पमाण), लहू (१.१८६ लहु), समआ (१.१७१ - समअ), सगणा (१. १७२ - सगण), घरा (१.१७४ = घर), "कुला (१.१८५ - "कुल), मीलिअ (१.१९२- मिलिअ) जणीओ (२.१५ - जणिओ), सग्गा (२.५३ - सग्ग), वासणा (२.७७=वसण), धणा (२.९५७ = धण), चारी (२.२७ = चारि), काला (२.२७= कला/कला:), सारि (२.२९ =सर शर: ) भूअंतासारा (२.३३=भूअंतसार) दूरित्ताखंडी (२.३४ = दुरितखंडी), वीस (१.२१० -विस), कई (२.१८६८कवि), बीसा (२.१०६ = बीस), वसंता (२.१४४ = वसंत), कंता (२.१४४ = कंत), परसण्णा (२.४८ = परसण्ण), जाणेही (२.६४ = जाणेहि), सत्ता दीहा (२.६४ = सत्त दीहा ). (२) छन्दोजनित व्यञ्जन द्वित्व : दुरित (१.१०४ = दुरित), दीपक (१.१८१ = दीपक), णाम ग्गहण (१.११० = णाम गहण ), जमक्का (१.१२ = जमक ८ यमक), ढोल्ला (१.१४७ - ढोल), णिम्म (१.१८९ =णिमणिअम/नियम), विसम त्तिअ (१.१९६ = विसम तिअ ), जक्खण (१.१९= जखण), कल ट्ठविज्जसु (१.१९१ = कल ठविज्जसु), सुक्खाणंदं (१.१९ = सुखानंद), तेलोक्का (२.३४ = तिलोक), घित्ता (१.१३०८घृतं), सुब्भं (२.४ = शुभं), तिव्वण्णो (२.११ = तिवण्णो), मालत्ती (२.११२ = मालती), सहित्तं (२.१६४ = सहित), णिहित्तं (२.१६४ णिहित), सारंगिक्का (२.१५७ = सारंगिका), रण्णकम्मअग्गरा (२.१६९ रणकम्म अग्गरा / रणकर्माग्राः) सारंगरूअक्क (२.१३१=सारंगरूअक), कुप्पिअ (२.१३० = कुपिअ / *कुप्य), कालिक्का (२.४२८ कालिका), पल्लट्टि (२.१३२ = पलट्टि ८ परावर्त्य), पअप्पअ (१.१८६ - पअ पअ ) अट्ठ ट्ठाअं (१.१९६ अट्ट ठाअं). " " (३) छन्दोजनित अनुस्वार की रक्षा कर या नया जोड़ कर : समं (१.१८९), गर्म (१.१८९), गणं (१.१८९), करं (१.१८९), तरुणं (१.१९४), छंद सुक्खाणंद (१.१९४), कलअं (२.१०८), देहं (२.१२४), रेहं (२.१२४), पिंगलिअं (२.१२९), भणिअं (२.१२९), उचिअं (२.१२९), वरं (२.१२९), अं (१.१२९) । अन्य उदाहरणों के लिए पद्य १.१९५ देखिये । ६०. छन्दोजनित हस्वीकरण: छन्दोनिर्वाहार्थ दीर्घीकरण की भाँति दीर्घ अक्षर को हस्व बना देने की प्रवृत्ति १. Jacobi : Introduction to Sanatkumaracaritam (Eng. trans.) - J. O. I. B. U. Vol. VI No. 4. P. 252 R. Bhavisattakaha (Intro.) § 11. Sanatkumaracaritam (Intro.) 3-11. Sandesarasaka (Study) § 16 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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