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________________ ४३४ प्राकृतपैंगलम् मज्झ (१.१०९)-B. मज्ज, C. मझ्झ. पज्झरइ (१.१२५)-A.N. पज्झरइ C.K. पझ्झलइ. स्वरमध्यगत प्राणध्वनि (ह) : ६५५. डा० घोषाल को प्रा० पैं. के पूरबी हस्तलेखों में कुछ ऐसे निदर्शन मिले हैं, जहाँ स्वरमध्यगत प्राणध्वनि (ह) का लोप कर दिया गया है। इस तरह के छुटपुट रूप प्रा० ० के कलकत्ता संस्करण में भी मिलते हैं तथा उस संस्करण में प्रयुक्त हस्तलेख K (B), K (C) की यह खास पहिचान है। डा० घोषाल को मिले हस्तलेखों से कतिपय उदाहरण ये हैं : हृदहि (१.७)-B. 4 हृदइ, B. 6 द्रहइ, वाहहि (१.९)-B. 1, 2, 3, 5, बाहइ, बुहाणह (१.११)-B1, 2. बुहाणअ । ट्ठडढाणह (१.१२)-B. 1 झुठडढाणअ, B. 4, 6. टठडढाणअ । पेक्खहि (१.६७)-B. 2, 4, 7, पेक्खइ । सिरहि (१.८९)-B. 1, 2, 4, 6, 7. सिरइ । विसज्जहि (१.१२४)-B. 1. 2. 4. 7. बिसज्जइ । करहि (१.१२५)-B. 4, 6 करइ । हमें प्राप्त हस्तलेखों में यह विशेषता नहीं पाई जाती, और इनमें मध्यग 'ह' को प्रायः सुरक्षित रक्खा गया है। डा० घोषाल ने उक्त पाठों को हस्तलेखों के लिपीकरण के समय बँगला कथ्यभाषा में प्रचलित उस प्रवृत्ति का प्रभाव माना है, जहाँ स्वरमध्यग 'ह' का लोप हो चुका था । प्राणध्वनि के शुद्ध स्वरमध्यग रूप तथा महाप्राण ध्वनियों के प्राणतांश का विकास न० भा० आ० के सभी भाषारूपों में विचित्र देखा जाता है। हिंदी तथा पंजाबी प्रायः पदमध्यग 'ह' तथा महाप्राण ध्वनियों की प्राणता को सुरक्षित रखती हैं, यद्यपि प्राणता के लोप तथा विपर्यय के छुटपुट उदाहरण पंजाबी तथा पश्चिमी हिंदी में भी मिल जाते हैं। न० भा० आ० में यह प्रवृत्ति गौड़ीय वर्ग में विशेष परिलक्षित होती है। होर्नली ने इसका संकेत किया है कि स्वरमध्यग 'ह' का पूरबी हिंदी में लोप कर दिया जाता है :-"जे कइ (=जेह कइ), ओ कइ (=ओह कइ), ताँ (=तहाँ), काँ (=कहाँ), माराठा ( मरहठा), सगा (=सगहा < सगर्भकः) । इतना ही नहीं, यहाँ कई असंयुक्त महाप्राण ध्वनियों में भी प्राणतालोप की प्रवृत्ति देखी जाती है :-परकइ (<परीक्ष्यते), अचरज (<अच्छरिज्ज < आश्चर्य), बच (बछा <वत्सकः), पचताबइ (< पछताबइ <*पच्छात्तावइ <पश्चात्तापयति), बड़ा (<बढा <वृद्धकः) बेडा (<वेढा < वेष्ट ।' किंतु ऐसा जान पड़ता है, यह प्रवृत्ति कमो-बेश समस्त न० भा० आ० में पाई जाती है। राजस्थानी-गुजराती में भी इसके संकेत मिलते हैं। राजस्थानी विभाषाओं में 'कहना', 'रहना', 'चाहना' जैसे शब्दों के समानान्तर रूप "कैबो (क'बो), रैबो (र'बो), चा'बो मिलते हैं। 'अ' ध्वनि के पूर्व तथा पर में होने पर स्वरमध्यग 'ह' का लोप कर दोनों 'अ' के स्थान पर 'ए' ( या !) ध्वनिका उच्चारण किया जाता है तथा इसका वैकल्पिक उच्चारण अ' (:) भी सुनाई देता है। यहाँ प्राणता के स्थान पर प्रायः १. "..... the loss of intervocalic 'h imbibed the tendency from the spoken Bengali tongue that was current at the time of the transcription of the Mss." Ghosal : A Note on Eastern and Western Mss. of the pp. (I. H. Q. 1957) २. Chatterjea : O. D. B. L. $76 (O) p. 159. Bloch : L Indo-Aryen p. 49 ३. Hoernle : A Comparative Grammar of the Gaudian Languages $32 ४. ibid.8142 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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