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________________ ४३१ प्राकृतपैंगलम् का भाषाशास्त्रीय अनुशीलन से उत्तरी भारत में 'ल-ळ' का भेद जाता रहा है, जो कालिदास के 'भुजलतां जडतामबलाजनः' वाले यमक से स्पष्ट है, जहाँ परवर्ती 'ड' का 'ळ' (ल) रूप मानकर ही यमक अलंकार माना गया है। यही कारण है कि उत्तरी भारत के हस्तलेखों में स्वरमध्यग 'ड' का रूप या तो केवल 'ड' लिखा मिलता है, या फिर दन्त्य (ल)। . प्राकृतगलम् के हस्तलेखों में मध्यग 'ड' का दो तरह का लिपीकरण मिला है । कुछ हस्तलेखों में यह 'ड' मिलता है, जो वस्तुतः 'ड' के लिए हैं, कुछ में 'ल', जो वंगीय या पूर्वी हस्तलेखों में प्रचुरता से मिलता है, जिसे 'ड' का स्थानापन्न माना जा सकता है। किंतु यहाँ इसका उच्चारण दन्त्य या पार्श्विक 'ल' ही है, उत्क्षिप्त प्रतिवेष्टित (flapped retrofle) नहीं । प्राकृतपैंगलम् की पुरानी पश्चिमी हिंदी में जैसा कि ब्रजभाषा के रूपों से स्पष्ट है 'ळ' ध्वनि नहीं रही होगी । पूर्वी राजस्थानी की 'ळ' ध्वनि का भी व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'ड' के स्वरमध्यग रूप से कोई संबंध नहीं जान पड़ता । यही कारण है, मैंने 'ड' वाले पाठ को ही प्रामाणिक माना है, जो स्वरमध्यग होने पर 'ड' रूप में उच्चरित होता रहा होगा, जैसा कि आज पाया जाता है । 'ड' तथा 'ल' वाले पाठान्तरों के कतिपय निदर्शन ये हैं : पाडिओ (१.२)-कलकत्ता सं० में प्रयुक्त B. C. हस्तलेख पालिओ । कीडसि (१.७)-कलकत्ता सं० कीलसि । खुडिअं (१.११)-A. B. C. N. खुडिअं, D. K. खुलिअं । ताडंक (१.३१)-C. D. K. तालंक । किंतु उन स्थानों पर जहाँ सभी हस्तलेखों में 'ल' ही रूप मिलता है, मैंने 'ल' को ही सुरक्षित रक्खा है। ऐसे स्थल बहुत अधिक नहीं है-संपलइ (१.३६) < संपादयति, पलंति (२.१२९) < पतंति । संयुक्त महाप्राण स्पर्श ध्वनियाँ ५४. प्राकृतपैंगलम् की विभिन्न प्रतियों में संयुक्त महाप्राण स्पर्श ध्वनियों-क्ख, ग्घ, च्छ, ज्झ, टु, ड्ड, स्थ, द्ध, प्फ तथा ब्भ-का लिपिसंकेत चार तरह से मिलता है। किन्हीं हस्तलेखों में इन्हें 'ख्ख', 'घ्य' जैसे द्वित्व महाप्राण रूपों में लिखा गया है, तो किन्हीं में प्रथम व्यञ्जन ध्वनि को अल्पप्राण तथा द्वितीय व्यञ्जन ध्वनि को महाप्राण लिखा हुआ है-यथा क्ख, ग्घ..... । कतिपय हस्तलेख इनमें दोनों ध्वनियों की 'प्राणता' (aspiration) का लोपकार 'क्क', 'ग्ग'..... जैसे लिपि-संकेतों से व्यक्त करते हैं, तो अन्यत्र इन्हें केवल एकाकी महाप्राण व्यञ्जन ध्वनि के लिपिसंकेत (ख, घ, छ, झ...) से ही व्यक्त किया जाता है, जहाँ पूर्ववर्ती अक्षर के ऊपर खड़ी लकीर बना दी जाती है ताकि उच्चारणकर्ता उस अक्षर पर बलाघात दे । कभी कभी यह खड़ी लकीर भी नहीं मिलती तथा बलाघात को पाठक के अनुमान पर छोड़ दिया जाता है, जो छन्दोऽनुरोध से स्वयं उसका शुद्ध अर्थात् द्वित्ववाला उच्चारण कर लेता है। वैदिक संस्कृत तथा पाणिनीय संस्कृत में हमें एक साथ एक ही अक्षर में दो संयुक्त महाप्राण व्यंजन ध्वनियाँ नहीं मिलतीं । ऐसे स्थानों पर सर्वत्र प्रथम महाप्राण व्यंजन ध्वनि अल्पप्राण हो जाती है। ठीक यही बात म० भा० आ० में भी पाई जाती है। गायगर ने अपने 'पालि व्याकरण' में बताया है कि "यदि संयुक्त व्यञ्जन में महाप्राण ध्वनि है, तो महाप्राण सावर्ण्य के नियम के अनुसार निर्मित नवीन रूप में सदा बाद में प्रयुक्त होगा : ख्+य-क्ख, क्+थ-त्थ" ।' प्राकृत में भी यही विशेषता उपलब्ध होती है। हेमचन्द्र ने अपने 'शब्दानुशासन' में बताया है कि जिन स्थलों पर संस्कृत 'ख थ फ' आदि प्राकृत में 'ह' न होकर द्वित्वयुक्त (संयुक्त व्यंजन) होते हैं, वहाँ प्रथम व्यञ्जन रूप उसी का अल्पप्राण हो जाता है।" रिचार्ड पिशेल ने भी इस तथ्य का संकेत 'प्राकृत व्याकरण' में किया है। वे कहते हैं :-"व्यञ्जन ध्वनि के लोप अथवा महाप्राण व्यञ्जन के 'ह' के रूप में परिवर्तन करने के स्थान पर बहुधा उनका द्वित्व भी उपलब्ध होता है। १. Pischel $ 226. p. 162-163 २. Macdonell : Vedic Grammar for Students $ 62. Whitney : Sanskrit Grammar $ 114, $ 153-154 ३. Geiger : Pali Literature and Language (Eng. trans.) $51. p. 94 ४. हैमव्याकरण ८.२.९० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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