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________________ ४३० प्राकृतपैंगलम् चिह्न (१.१८)-C. 'चिन्ह', N. 'चिह्न', अन्यत्र 'चिण्ह'. उआसीण (१.३५)-B.C. उदासीन (जो स्पष्टतः तत्सम रूप है). सुण्ण (१.३६)-C. सुन्न, अन्यत्र 'सुण्ण'. णिच्च (१.३५)-C. निच्च. णस (१.३८)-C.D. नस; साथ ही C. में नाअ (१.३८), (=णाअ < नाग:) रूप भी मिलता है. णिसंक (१.४४)-C. निसंक, D. नि:संक. पुण (१.४६)-C. पुनि (पदमध्यगत 'न' का प्रयोग). आणेइ (१.७४)-C. आनेइ (पदमध्यगत 'न' का प्रयोग). णित्ता (१.१३०)-C. नीत्ता. खंजणलोअणि (१.१३२)-C. खंजनलोअन. जात ण आणहि (१.१३२)-C. जात नहीं. मणोभव (१.१३५)-C. मनोभव (पदमध्यगत 'न' का प्रयोग). णव (१.१३९)-C. नव. णाम (१.१४१)-C. नाम. उपर्यंकित तालिका से यह आभास होगा कि न-वाली प्रवृत्ति 'C' हस्तलेख में प्रचुरता से मिलती है, किंतु वहाँ भी 'न' का नियतप्रयोग नहीं है, वहाँ अधिक संख्या पदादि तथा पदमध्यग 'ण' वाले रूपों की ही है, जो ग्रन्थ के साथ C. प्रति से दिये पाठान्तरों को देखने पर अधिक स्पष्ट हो सकती है। हमने सर्वत्र 'ण' को ही लिया है, पदादि में 'न' का परिवर्तन नहीं किया है। यद्यपि पदादि स्थिति में इसका उच्चारण मूर्धन्य नहीं जान पड़ता । इसी प्रकार 'ह' को भी ज्यों का त्यों के लिया है, उनके स्थान पर 'न्ह', 'न्न' का परिवर्तन नहीं किया गया है। उत्क्षिप्त प्रतिवेष्टित 'ड' तथा 'ळ' ६५३. आधुनिक राजस्थानी विभाषाओं, गुजराती तथा मराठी में ये दोनों ध्वनियाँ स्वरमध्यग रूप में पाई जाती है। संभवतः मराठी अथवा द्रविड़ भाषा वर्ग के प्रभाव के कारण ये दोनों ध्वनियाँ उड़िया में भी उपलब्ध हैं। राजस्थानी विभाषाओं में ये दोनों ध्वनियाँ भिन्न भिन्न हैं, और 'ड' एवं 'ल' के ध्वन्यंग (allophone) नहीं मानी जा सकतीं, क्योंकि ये वहाँ एक से ही ध्वनिसंस्थान में भी उपलब्ध होती हैं। नाडो (nado) 'पानी का गड्ढा', नाड़ो (naro) 'नीविबंधन' (हि० नारा), ढाल (dhal) 'ढाल', (ढाल (dhale) 'ढालू जमीन' ।। खड़ीबोली तथा ब्रजभाषा में 'ळ' नहीं मिलता, तथा केवलः खड़ीबोली में 'ड' का स्वरमध्यग स्थिति में "ड़ उच्चारण पाया जाता है, जहाँ 'ड' वस्तुतः 'ड' का ही ध्वन्यंग (allophone) है । वैदिकभाषा तथा म० भा० आ० में 'ड' (r) ध्वनि नहीं मिलती, किन्तु वहाँ 'ड', 'ढ' स्वरमध्यग होने पर 'ळळ्ह' पाये जाते हैं। छान्दस भाषा की इस विशेषता को ज्यों का त्यों पालि ने अपनाया है तथा वहाँ ये दोनों ध्वनियाँ पाई जाती हैं। प्राकृत में 'ळ्ह' का संकेत नहीं मिलता, वहाँ स्वरमध्यगत 'ड' के 'ळ' होने का संकेत पिशेल ने किया है। पिशेल ने बताया है कि उत्तरी भारत से उपलब्ध हस्तलेखों में यह 'ळ' ध्वनि संकेतित नहीं है, जब कि दक्षिण से मिले हस्तलेखों में यह प्रवृत्ति पाई जाती है। शाकुन्तल (१५५.१) के उत्तरी (बंगीय तथा नागरी) हस्तलेखों में 'कीलनअं' रूप मिलता है, जब कि दक्षिणी हस्तलेखों में 'किळणिज्जं', 'कीळणीयं' जैसे रूप मिलते हैं। पाणिनीय संस्कृत के प्रभाव २. १. Geiger : Pali Literature and Language (English trans.) 82p. 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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