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________________ ध्वनि-विचार ४२५ अनुनासिक को 'नून-ए--मगनूनह' । अनुस्वार का उदाहरण 'गंग' दिया गया है, जब कि अनुनासिक के प्रसंग में 'चाँद, . बूंद, गाँद, भौरा, नींद, पैंदा, कँवल, ये उदाहरण दिये गये हैं।' य ध्वनि तथा य-श्रुति का प्रयोग ४९. जैन हस्तलेखों में कई स्थानों पर 'य' के स्थान पर 'इ' तथा 'इ' के स्थान पर 'य' चिह्न मिलता है। भायाणीजी ने इस प्रकार की विशेषताओं का संकेत 'संदेशरासक' के हस्तलेखों के विषय में भी किया है । वहाँ एक ओर रय (=रइ-रति) २२ अ, गय (=गइ-गति) २६ ब, छायउ (=छाइऊ-छादित) ४८ अ, केवय (केवइ केतकी) २०५ द रूप मिलते हैं, तो दूसरी ओर मइरद्धउ (=मयरद्ध-मकरध्वजः) २२ स, आइन्निहिं (-आयन्नहि-आकर्णयन्ति) ४५ अ, अइत्थि (=अयत्थि-अगस्ति) १५९ ब, भी । प्राकृतपैंगलम् में इस प्रकार की विशेषता नहीं पाई जाती । सिर्फ एक हस्तलेख B. में 'आअत्ति' (=आयति: १.३७) का 'आइति' रूप मिलता है, जो स-श्रुतिक 'आयति' अथवा तत्सम रूप 'आयतिः' के 'य' का 'इ' के रूप में लिपीकरण है। D हस्तलेख में उपलब्ध 'मयंदह' में 'इ' (=मइंद) के स्थान पर 'य' माना जा सकता है, किन्तु अन्य प्रतियों में 'मअंदह' पाठ मिलता है। पदादि 'य' का प्रयोग कतिपय स्थानों में पाया जाता है; किन्तु ऐसे स्थानों पर कुछ हस्तलेख सर्वत्र 'ज' लिखते हैं। 'यगण' के लिए प्रयुक्त 'य' में मैंने 'य' ही रखा है, जिसके साक्षी कुछ हस्तलेख हैं, अन्यत्र मैंने 'ज' को ही चुना है। यथा 'यभा' (१.३३)-B. यभो, C. जभौ, K. जभा, A. D. N. यभौ । “यगण (१.३५)-K. अगण, C. यगण, D. यगण N. यगण । यगण (१.३६)-K. अगण, C. यगण, D. यगण, N. यगण । किन्तु 'जुअल' (१३.९) सब हस्तलेखों में 'जुअल' है, केवल D. में 'युगल' है, जो संस्कृत का प्रभाव है। प्राकृतपैंगलम् के केवल एक हस्तलेख (जैन उपाश्रय, रामघाट से प्राप्त अपूर्ण हस्तलेख D) के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं य-श्रुति का प्रयोग नहीं मिलता । प्राकृत में उद्धृत स्वरों को सुरक्षित रक्खा जाता है, तथा हस्तलेखों में भी यही रूप मिलता है। वैसे प्राकृतवैयाकरणों ने संकेत किया है कि प्राकृत में विकल्प से य-श्रुति तथा व-श्रुति वाले उच्चरित पाये जाते थे। हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में बताया है कि अ तथा आ के साथ अपभ्रंश में 'य'-श्रुति का प्रयोग पाया जाता है। जैन हस्तलेखों में प्राकृत तथा अपभ्रंश में उद्धृत स्वरों के बीच सदा 'य'-श्रुति का नियतरूपेण प्रयोग मिलता है। इस विशेषता का संकेत करते हुए पिशेल लिखते हैं :-"जहाँ पद के बीच में स्वर मध्यगत व्यञ्जन लुप्त होता है, उन दो स्वरों के बीच 'य'-श्रुति का विकास हो जाता है, यह 'य'-श्रुति जैन हस्तलेखों में सभी विभाषाओं में लिपीकृत होती है, और अर्धमागधी, जैन महाराष्ट्री तथा जैन शौरसेनी का खास लक्षण है।"४ पिशेल ने आगे चलकर यह भी बताया है कि जैनेतर हस्तलेखों में यह य-श्रुति नहीं मिलती। इस अति का प्रचुर प्रयोग अ-आ के साथ ही होता है, किन्तु इसक अस्तित्व इ तथा उ के साथ अ-आ आने पर भी देखा जाता है । यथा 'पियई' (=पिबति), सरिया (पालि) (-सरिता), इंदिय (=इन्द्रिय), हियय ( हृदय), गीय (गीत), रूय (-रुत), दूय (=दूत) (दे० पिशेल $ १८७)। डा० याकोबी ने 'भविसत्तकहा' वाले संस्करण में य-श्रुति का संकेत किया है। "यह संकेत करना संभवतः व्यर्थ न होगा कि जैन लेखक सामान्यतः प्राकृत में य-श्रुति का संकेत करते हैं। यह हमारे हस्तलेख में भी उपलब्ध १. A Grammar of Braj Bhakha by Mirza khan, p.X तथा p. 11 २. क्वचिद्यत्वं वा । गअणं गयणं वा । क्वचिद्वत्वं वा । सुहओ सुहवो वा । - दे० मेरा लेख: "अन्तस्थ ध्वनियाँ" (शोधपत्रिका, २००९ वि० सं०) ३. अवर्णो यश्रुतिः । (८.१.१८०) कगचजेत्यादिना लुकि सति शेषो अवर्णोऽवर्णात्परो लघुप्रयत्नतरयकारश्रुतिर्भवति । - हेमचन्द्र 8. An Stelle der Consonanten, die imm Innern des Wortes zwischen Vccalen ausgefallen sind, wird ein Schwacher artikuliltes 'ya' gesprochen, das Jainahandschriften in allen Dialekten schreiben, und das fur AMg. JM. JS. charakteristisch ist. - Pischel 845p.48 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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