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प्राकृतगलम् की पुरानी पश्चिमी हिन्दी
४०५ पर उनकी भाषा और व्याकरण अत्यधिक पश्चिमीकृत हो गई । वस्तुतः । प्राकृतपैंगलम् की भाषा को पश्चिमी अवहट्ठ माना जा सकता है। प्राकृतपैंगलम् और पुरानी पूरबी राजस्थानी :
३२. पुराना पश्चिमी राजस्थानी का व्याकरण उपस्थित करते समय डा० टेसीटोरी ने 'प्राकृतपैंगलम्' की भाषा को पुरानी पूरबी राजस्थानी कहा है । हम यहाँ टेसीटेरी के उक्त मत को ज्यों का त्यों उद्धृत कर रहे हैं ।।
"हेमचन्द्र ईसा की १२ वीं शती (सं० ११४९-१२२९) में उत्पन्न हुए थे, और यह स्पष्ट है कि उनके द्वारा मीमांसित अपभ्रंश का स्वरूप उनके काल से पूर्व का है। इस आधार पर उनके द्वारा वर्णित शौरसेन अपभ्रंश के कालनिर्णय के विषय में १० वीं शताब्दी निश्चित करने का प्रमाण हमारे पास विद्यमान है। अपभ्रंश के पश्चाद्भावी युग के लिए 'प्राकृतपैंगलम्' के आलोचनात्मक संपादन के शीघ्रातिशीघ्र उपलब्ध होते ही हम इससे पूरी जानकारी प्राप्त करने की आशा रख सकते हैं। ..... पिंगलसूत्र के उदाहरणों की भाषा, हेमचन्द्र की अपभ्रंश से अधिक विकसित स्थिति का संकेत करती है। अपभ्रंश की इस परवर्ती स्थिति की केवल एक, किन्तु अत्यधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता के संकेत तक सीमित रहते हुए, मैं वर्तमानकालिक कर्मवाच्य रूप का उदाहरण दे सकता हूँ, जो अन्तः में प्रायः -ईजे (Zइज्जए) से युक्त पाया जाता है,
और यह इस बात का प्रमाण है कि चौदहवीं शती के पहले से ही व्यंजनों की द्वित्वप्रवृत्ति के सरलीकरण तथा पूर्ववर्ती स्वर के दीर्धीकरण की प्रक्रिया चल पड़ी थी, जो अपभ्रंश के साथ तुलना करने पर नव्य भाषाओं की प्रमुख ध्वन्यात्मक विशेषता प्रतीत होती है। तथा इसी काल में या इसके कुछ बाद में प्राकृत पैंगलम् का अन्तिम रूप पल्लवित हुआ होगा। इसका कारण यह है कि यद्यपि उक्त ग्रन्थ में विभिन्न छन्दों के उदाहरण रूप में उपन्यस्त पद्यों में से कतिपय पद्य चौदहवीं शती से पुराने नहीं है, तथापि यह भी स्पष्ट है कि यह बात सभी पद्यों के साथ लागू नहीं होती, और इस तरह पिंगलअपभ्रंश को हम उस काल में प्रचलित (जन-)भाषा के प्रतिनिधि के रूप में कदापि नहीं मान सकते, जब कि 'प्राकृतपैंगलम्' की रचना हुई थी। वस्तुतः यह प्राचीन भाषा है, जो उस काल में सर्वथा मृत हो चुकी थी, और केवल साहित्यिक कृतियों की भाषा थी । व्यावहारिक निष्कर्ष यह है कि प्राकृतपैंगलम् की भाषा हमारे लिये हेमचंद्र की अपभ्रंश तथा नव्य भाषाओं के इतिहास की प्राचीनतम स्थिति के बीच की सोपान-पंक्ति है, तथा दसवीं शती से ग्यारहवीं शती, अथवा संभवत: बारहवीं शती के काल तक संकेतित की जा सकती है ।"२ . आगे चलकर डा० टेसिटोरी ने बताया है कि 'प्राकृतपैंगलम्' की भाषा उस शाखा का शुद्ध प्रतिनिधित्व नहीं करती, जिसका विकास पुरानी पश्चिमी राजस्थानी के रूप में हुआ है । वस्तुतः इसमें कई ऐसे तत्त्व पाये जाते हैं, जो पूरबी राजपूताना को अपना स्थान सिद्ध करते हैं । इसमें मेवाती, जैपुरी, मालवी जैसी राजस्थानी विभाषाओं और पश्चिमी हिंदी की विभाषाओं के कई तत्त्व बीजरूप में उपलब्ध होते हैं । यथा संबंध कारक का परसर्ग 'कउ' (हि० का, पू० रा० को) पुरानी पश्चिमी राजस्थानी के लिये सर्वथा, नवीन तथा विजातीय है; वह गुजरात तथा पश्चिमी राजपूताना की बोलियों में सर्वथा उपलब्ध नहीं होता, जब कि यह पूरबी राजस्थानी और पश्चिमी हिंदी की खास विशेषताओं में एक है। प्राकृतपैंगलम् की भाषा के परवर्ती रूप का संकेत करते वे कहते हैं :-"इसकी (प्रा० ० की भाषा की) साक्षात् उत्तराधिकारिणी पुरानी पश्चिमी राजस्थानी न होकर वह भाषा है, जो हमें चन्द की कविता में प्राप्त है और जो पुरानी पश्चिमी हिंदी के नाम से अभिहित की जा सकती है। इस भाषा तथा प्राकृतपैंगलम् को भाषा की प्रमुख विशेषताओं में से एक निर्देशात्मक वर्तमान के अर्थद्योतन के लिये वर्तमानकालिक कृदंत (शतृ प्रत्यय से उद्भूत रूप) का प्रयोग है ।"३ ।
प्राकृतपैंगलम् की भाषा को पुरानी पूरबी राजस्थानी के साथ पुरानी पश्चिमी हिंदी भी मानते हुए टेसिटोरी ने इस बात का संकेत किया है कि इस काल में ये दोनों भाषायें परस्पर इतनी सन्निकट थीं कि इनकी स्पष्ट विभाजक सीमारेखा का संकेत करना कठिन है। वे कहते हैं :
8. But it is quite possible that these poems were originally Bengali, especially from their verse
cadence; and through their passage from Bengal to western India, their grammar & language has
been to a greater extent westernised. - ibid § 64. p. 124 २. Tessitori : Notes of Old Western Rajasthani (Indian Antiquary April. 1914)
3. ibid. Jain Education International For Private & Personal Use Only
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