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प्राकृतपैंगलम्
• [१.४१ अंकों को लोप कर लिखें । जो जो अंक शेषांक में आता है, वह अपनी स्वयं की कला को तथा दूसरी मात्रा को भी लेकर गुरु हो जाता है, इस ढंग से लिखने पर लेख आ जाता है। ऐसा पिंगल नाग का वचन है।
इसमें नष्ट मात्रा के विषय में प्रश्न करने पर उत्तर देने की विधि बताई जा रही है। मान लीजिये, किसी ने प्रश्न पूछा कि षट्कल में दसवाँ भेद कौन-सा होता है ? इसका उत्तर देने के लिए हमें सबसे पहले छ: कला (लघु) लिखनी चाहिए-।।।।।।, इसके बाद पिछले चक्र की तरह यहाँ भी अंक लिख लेंगे- १२ ३ ५८ १३
अब हम १३ में से जो षट्कल का अंतिम भेद है, १० बाकी निकाल देते हैं, तो शेष ३ बचेगा, इससे षट्कल की तीसरी कला अपने आगे की कला (चौथी) के साथ गुरु बन जायगी। अतः षट्कल के दसवें भेद का रूप होगा॥७॥. मान लीजिये, हमें पाँचवें भेद का पता लगाना है। उक्त विधि से १३ में से ५ बाकी निकालने पर ८ बचते हैं, यह ८ अंक पाँचवें लघु के ऊपर है, इस तरह पाँचवी कला छठी कला के साथ मिलकर गुरु हो जायगी, अतः पाँचवा भेद होगा-।।।। 5. हम एक तीसरा उदाहरण ले लें । मान लीजिये, षट्कल के आठवें भेद का पता लगाना है । १३ में से ८ बाकी निकालने पर ५ बचेंगे; यह अंक चौथी कला पर है। अतः चौथी कला पाँचवी के साथ मिलकर गुरु हो जायेगी तथा षट्कल का आठवाँ भेद । ।। ऽ । होगा। मान लीजिये, षट्कल के प्रथम भेद का ही पता चलाना है। ऐसी स्थिति में १२ शेष बचेंगे। ये १२ किसी भी एक कला पर नहीं, पर प्रथम, तृतीय तथा पंचम कला के अंक (१, ३, ८) का योग १२ होता है; अतः इस भेद में प्रथम, तृतीय या पंचम कला आगे आगे वाली कला के साथ मिलकर गुरु हो जायेगी। अतः षट्कल का प्रथम भेद सर्वगुरु ऽऽऽ होगा । इसी तरह अन्य भेदों की नष्ट मात्रा का भी पता चल सकता है।
टिप्पणी-णद्वे 2 नष्टे (ट्ठ 2 ष्ट. 'ए' अधिकरण ए० व०) कारिज्जसु, दिज्जसु Vकर+इज्ज+सु (णिजंत, विधि म०पु०ए०व०) Vदे+इज्ज+सु (विधि म०पु०ए०व०) पुच्छल सं० 'पुच्छ+लः'। मिटावहि-मिटाव+हि (णिजंत, आज्ञा म०पु०ए०व०) उवरल 2 *उपरिल: ('अल' प्रत्यय दे० तगारे ६ १५८, टेसिटोरी ६ १४३ ।।
लोपि < लोपिअ 2 *लुप्य ('इ' < 'य' (ल्यप् ) पूर्वकालिक क्रिया बोधक कृदन्त प्रत्यय दे० पिशेल ६५८९९० । अवहट्ठ में आकर 'इअ' प्रत्यय के पदांत 'अ' का लोप हो गया है। यह 'इ' वाला रूप व्रजभाषा तथा अवधी में भी प्रचलित है। अवधी के लिए दे० डॉ० सक्सेना : इवोल्यूशन आव् अवधी ३३५ ) ।
कहु-(कहाउ आज्ञा म०पु०ए०व० का अपभ्रंश-अवहट्ठ में 'उ' चिह्न है। साथ ही इसका अवहट्ठ में शून्य चिह्न भी पाया जाता है।
जत्थ यत्र (त्र > त्थ (ट्ठ) के लिए दे० पिशेल $ २९०) । पाविज्जइ-/पाव+इज्ज (कर्मवाच्य)+इ (वर्तमान प्र० पु० ए० व०)
लइ-Vले+इ अपभ्रंश में Vले धातु से 'इ' (ल्यप्) प्रत्यय के रूप विकल्प से 'लेइ'-'लइ' बनते हैं, इस रूप में 'ए' का 'अ' के रूप में असावर्ण्य हो गया है। इसे हम असावर्ण्य का उदाहरण इसलिए मान रहे हैं कि 'ए' तथा 'इ' दोनों पश्चग स्वर (बेक वाउल्स) हैं, तथा 'इ' के कारण 'ए' 'अ' हो गया है। 'लइ' रूप दोहाकोष में भी मिला है; दे० तगारे पृ. ४३८ ।
जाइ-Lयाति /जा+इ (वर्तमान प्र० पु० ए० व०) आइ-आ+इ; प्र० पु० ए० व० । लेक्खहु-Vलेक्ख धातु से आज्ञा म०पु०ब०व० । अह वण्णाणं उद्दिटुं,
अक्खर उप्परि दुण्णा, अंका दिज्जहु मुणेहु उद्दिट्ठा ।।
लहु उप्परि जो अंको तं देइ एक्केण जाणेहु ॥४२॥ [गाथा] ४२. ०. अथ वर्णानामुद्दिष्टं । आदौ D. लेखे 'गाहा' इति प्राप्यते । अक्ख-C. अख्खर D. अप्पर । उप्परि-C.D. उप्पर । दुण्णा
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