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________________ ३९४ (१) प्राकृतपैंगलम् अहि ललइ महि चलइ गिरि खसइ हर खलइ, ससि घुमइ अमिअ वमइ मुअल जिवि उट्ठए । पुणु धसइ पुणु खसइ पुणु ललइ पुणु घुमइ, पुणु वमइ जिविअ विविह परि समर ट्ठिए ॥ (प्रा० .० १.१६०) गिरि टरइ महि पडइ नाग मन कंपिआ, तरणि रथ गगन पथ धूलि भरे झंपिआ ॥ (कीर्तिलता, तृतीय पल्लव) (२) उम्मत्ता जोहा ढुक्कंता विप्पक्खा मज्झे लुक्कंता । णिक्वंता जंता धावंता णिब्धता कित्ती पावंता ।। (प्रा० पैं० २.६७) हुंकारे वीरा गज्जन्ता पाइक्का चक्का भज्जन्ता । धावन्ते धारा टुट्टन्ता सन्नाहा बाणे फुट्टन्ता ॥ (कीर्ति०, चतुर्थ पल्लव) विद्यापति ने कीर्तिलता की रचना ठीक उसी साहित्यिक शैली में की थी, जिसकी परंपरा प्रा० पैं. के पद्यों में उपलब्ध है। इस प्रकार प्रा० पैं० के उदाहरण भाग के मुक्तक पद्यों का हिंदी साहित्य में अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि ये पद्य हिंदी के आदिकालीन परिनिष्ठित साहित्य का रूप उपस्थित करने में नाथपंथी अप्रामाणिक रचनाओं या संदिग्ध रासो-ग्रन्थों से अधिक सशक्त हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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