SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पतिका या किसी उपनायक को ला हिन्दी साहित्य में प्राकृतपैंगलम् का स्थान ३९३ होगा । यहाँ रमणी का विरह में कुम्हलाने वाला या संयोग की कसौटी पर कनकरेखा की तरह दमक उठनेवाला रूप ही नहीं मिलता, उसका वह सगर्व चित्र भी दिखाई पड़ता है, जहाँ वह प्रिय की वीरता से हर्षित होती चित्रित की गई है। अन्यत्र वर्षाऋतु के परिपार्श्व में प्रवत्स्यत्पतिका नायिका की विरहवेदना का मार्मिक चित्र सिर्फ एक दो रेखाओं के द्वारा ही व्यंजित किया गया है। "हिअइ खुडक्कइ गोरडी गयणि घुडुक्कइ मेहु । वासा-रत्ति-पवासुअहं विसमा संकडु एहु ।।"२ । (नायिका) के हृदय में पीडा हो रही है: आकाश में बादल गडगडा रहे हैं: वर्षा की रात में विदेश जाने के लिए प्रस्तुत प्रवासियों के लिये निःसन्देह यह बहुत बड़ा संकट है।" हेमचन्द्र के 'छन्दोनुशासन' के अपभ्रंश छन्द:प्रकरण में अनेक श्रृंङ्गारी ऋतुवर्णनपरक पद्य उद्धृत हैं। इनके विषय में यह अनुमान होता है कि ये रचनायें तत्तत् छन्दों के लक्षणानुसार स्वयं हेमचन्द्र ने ही निबद्ध किये हैं। प्रा० पैं० में श्रृंगारी मुक्तकों की संख्या पर्याप्त है, जिसके अंगभूत ऋतुवर्णनपरक पद्य भी हैं। नायिका के सौंदर्य का वर्णन करते तथा उसे मनाते विट, नायक के समीप नायिका को अभिसरणार्थ फुसलाती सखी या दूती, वसंत के उद्दीपन का वर्णन कर कामक्रीडा के लिये नायिका को तैयार करते नायक, बादलों की गरज सुनकर दुखी होती प्रोषित का या किसी उपनायक को लाने के लिये सखी को संकेत करती कलटा के कई चित्र यहाँ देखने को मिल जायेंगे। वसंत ऋतु की असह्यता का वर्णन करती एक विरहिणी कहती है : फुलिअ महु भमर बहु रअणिपहु, किरण लहु अवअरु वसंत । मलयागरि कुहर धरि पवण वह, सहब कह सुण सहि णिअल णहि कंत ॥ (१.१६३) अन्यत्र अन्य प्रोषितपतिका वर्षाऋतु की भयावहता का संकेत करती है : णच्चइ चंचल विज्जुलिआ सहि जाणए, मम्मह खग्ग किणीसइ जलहरसाणए । फुल्ल कलंबअ अंबर डंबर दीसए, पाउस पाउ घणाघण सुमुहि वरीसए ॥ (१.१८८) एक स्थान पर स्वयंदूती की रमणेच्छा की व्यञ्जना पाई जाती है, जो पथिक को ग्रीष्मकालीन मध्याह्न में विश्राम करने का आमंत्रण करती कह रही है : तरुण तरणि तवइ धरणि पवण वह खरा, लग णहि जल बड मरुथल जणजिअणहरा । दिसइ चलइ हिअअ डुलइ हम इकलि वहू, घर णहि पिअ सुणहि पहिअ मण इछड़ कहू ॥ (१.१९३) ___ कहने का तात्पर्य यह है कि प्रा० पैं० में उद्धृत इन अनेक शृंगारी मुक्तकों की परम्परा हमें विद्यापति के पदों में भी मिलती है, जिन पर वैसे जयदेव के गीतगोविन्द का भी पर्याप्त प्रभाव है। विद्यापति के कई पदों की भाव-व्यंजना प्रा० पैं० के मुक्तक पद्यों की भाव-व्यंजना के समानान्तर देखी जा सकती है। प्रा० ० के २.१९७, २.२०३ जैसे मुक्तक पद्यों की शब्द-योजना तक की गूंज विद्यापति के कुछ पदों में मिल जायगी। शंगारी मुक्तकों की यही परम्परा आगे चलकर रीतिकालीन कविता में उपलब्ध होती है। प्रा० ० के पद्यों की अभिव्यंजना शैली : २१. पुरानी पश्चिमी हिंदी काव्य की प्राचीन कृतियाँ होने पर भी प्रा० ० के मुक्तकों के पीछे साहित्यिक परंपरा की एक महती पृष्ठभूमि विद्यमान है, इसका संकेत अभी हाल किया जा चुका है। यही कारण है कि भले ही इस काल की हिंदी कुछ उबड़-खाबड़ जरूर लगे, भाव-व्यंजना सशक्त है तथा कला-पक्ष को भी बिलकुल कमजोर नहीं कहा जा सकता, यद्यपि इन पद्यों की अभिव्यंजना शैली, प्रतीकों, उपमाओं, रूपकों और उत्प्रेक्षाओं में कोई मौलिकता न मिले। इन पद्यों के पीछे खास तौर पर संस्कृत साहित्य की तत्तत् मुक्तक परंपरा का खास हाथ रहा है, और अभिव्यंजना एवं शैली-शिल्प की दृष्टि से ये कमो-बेश उसी साँचे में ढले हुए हैं। वीररसात्मक पद्यों की अभिव्यंजनाशैली ठीक वही है, जो बाद में विद्यापति की कीर्तिलता में भी दिखाई पड़ती है। उदाहरण के लिए हम दो समानांतर पद्यों को उद्धृत कर १. ढोला सामला धण चम्पावण्णी । णाइ सुवण्णरेह कसवट्टइ दिण्णी ।। (हेम० प्रा० व्या० ८.४.३३०) २. हेम० प्रा० व्या० ८.४.३९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy