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हिन्दी साहित्य में प्राकृतपैंगलम् का स्थान
११. विद्यापति से पूर्व की हिन्दी रचनाओं में से अधिकांश की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता का झगड़ा अभी तक तय नहीं हो पाया है। हिंदी के आरम्भिक काल की कई रचनाएं-चाहे उसे कुछ भी नाम दिया जाय, सिद्ध-सामंतयग. वीरगाथा काल. चारण काल या आदि काल-अभी तक शंका का विषय बनी हुई हैं। वैसे मुझे व्यक्तिगत रूप से राहुल जी तथा डा० रामकुमार वर्मा का नामकरण ठीक नहीं जचता, क्योंकि एक इस युग में अपभ्रंश की कृतियों का भी समावेश करना चाहते हैं, दूसरे उसे किसी जाति-विशेष (चारण जाति के कवियों) से सम्बद्ध करने की चेष्टा करते हैं। विवाद की गुंजायश केवल आचार्य शुक्ल तथा डा० द्विवेदी के नामकरणों के विषय में ही हो सकती है। जहाँ तक शुक्लजी के नामकरण (वीरगाथाकाल) का प्रश्न है, उन्हें प्राप्त सामग्री के आधार पर यही एक नाम उपयुक्त दिखाई पड़ता था । शुक्लजी की जानकारी को देखते हुए उनकी यह राय बिलकुल दुरुस्त है :
__ "राजाश्रित कवि अपने राजाओं के शौर्य, पराक्रम और प्रताप का वर्णन अनूठी उक्तियों के साथ किया करते थे और अपनी वीरोल्लास भरी कविताओं से वीरों को उत्साहित किया करते थे। ऐसे राजाश्रित कवियों की रचनाओं के रक्षित रहने की अधिक सुविधा थी । वे राजकीय पुस्तकालयों में भी रक्षित रहती थीं और भट्ट चारण जीविका के विचार से उन्हें अपने उत्तराधिकारियों के पास भी छोड़ जाते थे। उत्तरोत्तर भट्ट चारणों की परम्परा में चलते रहने से उनमें फेरफार भी बहुत कुछ होता रहा है। इसी रक्षित परम्परा की सामग्री हमारे हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक काल में मिलती है। इसी से यह काल 'वीरगाथा-काल' कहा गया ।"१
नाथ सिद्धों की तथाकथित रचनाओं के विषय में शुक्लजी की राय एक अंश में तो अभी भी सत्य मानी जा सकती है कि गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध रचनाएं जिस रूप में मिलती हैं, इस काल में वे हिंदी के आदि काल की रचनायें कतई नहीं मानी जा सकतीं । वे कबीर के बाद की भले ही हों, उनसे पहले की तो हर्गिज नहीं जान पड़तीं। साथ ही नाथसिद्धों की तथाकथित रचनाओं का साहित्यिक महत्त्व आखिर क्या है, यह प्रश्न उठाना अनुचित न होगा। इधर नाथसिद्धों की अप्रामाणिक रचनाओं पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया जाने लगा है, और जिन्हें पुरानी परम्परा तथा रूढियों के हर खंडन में क्रांतिकारिता के बीज देखने का रोग हो गया है, वे कबीर आदि निर्गुण भक्तों को सर्वथा नाथसिद्धों की देन सिद्ध करने पर कटिबद्ध हैं। आचार्य शुक्ल ने नाथसिद्धों की इन रचनाओं पर न्यायपूर्ण निर्णय देते हुए घोषणा की थी -
"सिद्धों और योगियों का इतना वर्णन करके इस बात की ओर ध्यान दिलाना हम आवश्यक समझते हैं कि उनकी रचनाएँ तांत्रिक विधान, योग-साधना, आत्म-निग्रह, श्वास-निरोध, भीतरी चक्रों और नाड़ियों की स्थिति, अन्तर्मुख साधना के महत्त्व इत्यादि की साम्प्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका कोई संबंध नहीं । अतः वे शुद्ध साहित्य के अंतर्गत नहीं आतीं। उनको उसी रूप में ग्रहण करना चाहिए जिस रूप में ज्योतिष, आयुर्वेद आदि के ग्रन्थ ।"२ ।
इधर कई विद्वानों ने सिद्ध किया है कि नाथपंथियों की तथाकथित रचनाएँ निःसंदेह जीवन विमुख हैं तथा कबीर जैसे सन्त कवि वस्तुत: उनसे प्रभावित नहीं हैं, अपितु उन्होंने नाथसिद्धों के प्रभाव से जनता को मुक्त करने का कार्य किया है। डा० रामविलास शर्मा के शब्दों में, "सारांश यह कि नाथपंथी योगियों और वज्रयानी सिद्धों की जीवनविमुख विचार-धारा के बारे में शुक्लजी की स्थापनाएँ सत्य हैं ।"३ ।
वीरगाथाकाल के संबंध में जिन कृतियों का विवरण शुक्ल जी ने दिया है, उनमें (१) कीर्तिलता, (२) कीर्तिपताका तथा (३) विद्यापति-पदावली को छोड़ कर शेष सभी कृतियाँ किसी न किसी रूप में अप्रामाणिक तथा प्रक्षिप्त हैं, तथा उनका उपलब्ध स्वरूप । भाषावैज्ञानिक दृष्टि से पूर्ण प्रामाणिक नहीं माना जा सकता । शेष आठ कृतियां-(१) खुमानरासो
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१. आचार्य शुक्ल : हिन्दी सा० का इतिहास पृ० २९ (८वां संस्करण) २. वही पृ० १९ ।
३. दे० डा० शर्मा : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ओर हिन्दी आलोचना (दूसरा अध्याय) पृ० २७-४८ । Jain Education International
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