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________________ २. १८७ ] वर्णवृत्तम् [ १६७ कमलवन प्रफुल्लित हो गया है, मन्द मन्द पवन बह रहा है; दिशाओं और विदिशाओं में भरे घूम रहे हैं; वन में झंकार (भौरों की गुंजार) पड़ रही है; कोकिलसमूह विरहियों के सामने कठोर स्वर में कूक रहा है, युवक आनंदित हो उठे हैं, मन तेजी से उल्लसित हो उठा है; शिशिर ऋतु लौट गया है, और दिन बड़े हो चले हैं। प्रस्तारोत्तीर्ण वर्णवृत्त, त्रिभंगी : सव पअहि पढम भण दहअ सुपिअ गण भगणा तह अंता गुरुजुग्गा हत्थ पलंता । पुण वि अ गुरुजुअ लहुजुअ वलअ जुअल कर जंपड़ णाआ कइराआ सुंदरकाआ । पअ अ तलहि करहि गअगमणि ससिवअणि चालिस मत्ता जुत्ता एहु णिरुत्ता, गणि गण भण सव पअ वसु रस जुअ सअ पअला तिअभंगी सुहअंगी सज्जनसंगी ॥ २१४॥ २१४. त्रिभंगी छंद का लक्षण:- हे गजगमने, हे शशिवदने; समस्त पदों में पहले दस प्रियगण (लघुद्वयात्मक गण, II) कहो, अन्त में भगण (SII) हो, तब दो गुरु (ss) तथा एक हस्त (सगण IIS) पड़े, तब फिर दो गुरु, दो लघु, तथा दो गुरु करो । ( इस तरह प्रत्येक चरण में २४ वर्ण हों) । सुन्दर शरीर वाले कविराज नाग कहते हैं कि इस प्रकार चरण को ४२ मात्रा से युक्त करो। इस प्रकार समस्त छन्द के चारों चरणों में १६८ मात्रा पड़े, वह शुभ अंगों वाली, सज्जनों की प्रिय, त्रिभंगी है । (त्रिभंगी । x १० + 511 + 55 + 115 + 55 + 1 + ऽऽ = ३४ वर्ण; ४२ मात्रा; कुल वर्ण १३६, मात्रा १६८ ) । जहा, अइ अइ हर वलइअविसहर तिलइअसुंदरचंदं मुणिआणंदं सुहकंदं । वसहगमण करतिसुल डमरुधर णअणहि डाहु अणंगं रिउभंगं गोरिअधंगं ॥ जअइ जअइ हरि भुजजुअधरु गिरि दहमुहकंसविणासा पिअवासा सुंदर हासा । बलि छलि महिहरु असुरविलअकरु मुणिअणमाणसहंसा सुहभासा उत्तमवंसा ॥२१५॥ [त्रिभंगी ] २१५. त्रिभंगी छन्द का उदाहरण: साँपों का कंकण धारण करनेवाले, सुंदर चन्द्रमा के तिलक वाले, मुनियों के आनंद, सुखकन्द, वृषभवाहन (वृषभगमन), हाथ में त्रिशूल तथा डमरु धारण करने वाले, शिव की जय हो, जय हो, जिन्होंने नेत्र से कामदेव को जला डाला तथा शत्रु का भंग किया और जो पार्वती को अर्धांग में धारण करते हैं। हाथों पर पर्वत धारण करने वाले रावण तथा कंस के विनाशक, पीतांबरधारी, (क्षीर) सागर में निवास करने वाले, पृथ्वी में बलि को छलनेवाले तथा दैत्यों का नाश करने वाले मुनियों के मानसहंस, शुभ्र कांतिवाले, उत्तम वंश में उत्पन्न हरि (विष्णु) की जय हो, जय हो । उक्त वर्णवृत्तों की अनुक्रमणिका: सिरि १, काम २, महु ३, मही ४, सारु ५, ताली ६, पिआ ७, ससी ८, रमणा ९, जाणा पंचाल १०, मद ११, मंदर १२, कमल १३, तिण्णा १४, धारी १५, णगाणिआ १६, संमोहा १७, हरीअ १८, २१४. दहअ - N. दह, B. दह जसु, C. दह जसु पिअगण, O दहजे । पलंता - C. अणंता, O. गणंता । करहि - N. कहि । चालिस - N. बालिस । गुणि गण भण N. गणि भण। जुअ सअ - N. एस सअ । २१४ -C. २१७. N. २८७, O. २१३ । २१५. वसह - A. B. वरद । डाहु-N. ढाहु । गोरि - C. N. गौरि । सुंदरहासा - N O साअर वासा। 'हरु - N. हलु, C. छलिअ महिअ अर। मुणि...... वंसा - C. मुणिजणमाणसहंसा पिअउत्तिमवंसा । मुणिअण -0. मुणिगण० । उत्तमवंसा - २१५ – C. २१८, N. २८८, O. २१४ । निर्णयसागरसंस्करणे २९१ संख्यकं निम्नपद्यं प्राप्यते । एतत्प्रक्षिप्तं वर्तते । उत्तिमवंसा । अथ सवैया छंद : छह मत्तह पढमहि दिज्जह मत्त एअत्तिस पाए पाअ, सोलहपञ्चदहहि जइ किज्जइ अन्तर ठाए ठाइ । चोवीसा स मत्त भणिज्जह पिङ्गल जम्पइ छन्दसु सार अन्त अ लहूअ लहूअ दिज्जहु णाम सवैआ छन्द अपार ॥ (२९१ ) नि० सा० सं० पृ० २२६ Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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