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२.१८७] वर्णवृत्तम्
[१५९ < सं० सम्भालयति )।
भित्तरि-< अभ्यन्तरे, क्रियाविशेषण (हि० रा० भीतर) । विंशत्यक्षरप्रस्तार, गीता छंद :जहि आइ हत्थ णरेंद विण्ण वि पाअ पंचम जोहलो.
जहि ठाइ छट्ठहि हत्थ दीसइ सद्द अंतहि णेउरो । सइ छंद गीअउ मुद्धि पीअउ सव्वलोअहि जाणिओ,
कइसिट्ठिसिट्ठउ दिट्ठ ट्ठिउ पिंगलेण बखाणिओ ॥१९६॥ १९६. हे मुग्धे, जहाँ आरम्भ में हस्त (सगण) तथा दो नरेन्द्र (जगण), तब पाद (भगण) (दिये जाय) तथा पाँचवा - गण जोहल (रगण) (हो), जहाँ स्थान पर हस्त (सगण) तथा अन्त में शल्य (लघ) तथा नपर ( छंद सब लोगोंने अच्छा (नीका) समझा है, कवि सृष्टि के द्वारा निर्मित, दृष्टि (कविदृष्टि अथवा छन्दःशास्त्र) के द्वारा दृष्ट, उस छंद को पिंगल ने गीता (छंद) कहा है।
(गीता:-||S, II, ISI, II, 55, 51, 5=२० वर्ण) टिप्पणी-जहि-< यस्मिन्; ठाइ < स्थाने । छट्टहि-< षष्ठे; 'हि' अधिकरण ए० व० की विभक्ति । दीसइ-< दृश्यते, कर्मवाच्य क्रिया रूप । णीअ-हि. नीका, रा० नीको । लोअहि-< 'लोकैः, करण ब० व० की विभक्ति 'हि' । बखाणिओ-व्याख्यातः । Vवखाण नाम धातु है, जिसका विकास सं० 'व्याख्यान' से है। - जहा,
जह फुल्ल केअइ चारु चंपअ चूअमंजरि वंजुला,
सव दीस दीसइ केसुकाणण पाणवाउल भम्मरा । वह पोम्मगंध विबंध बंधुर मंद मंद समीरणा,
पियकेलिकोतुकलासलंगिमलग्गिआ तरुणीजणा ॥१९७॥ [गीता] १९७. उदाहरण:वसन्त ऋतु का वर्णन है :
केतकी, सुन्दर चम्पक, आम्रमंजरी तथा वंजुल फूल गये हैं, सब दिशाओं में किंशुक का वन (पुष्पित किंशुक) दिखाई दे रहे हैं; और भौरे (मधु के) पान के कारण व्याकुल (मस्त) हो रहे हैं, पद्म-सुगन्धयुक्त (विबन्धु) तथा मानिनियों के मानभंजन में दक्ष (बंधुर) मंद मंद पवन बह रहा है, तरुणियां अपने पति के साथ केलिकौतुक तथा लास्यभंगिमा (लास्य लंगिमा) में व्यस्त हो रही है।
टि०-दीस-< दिशि, अधिकरण ए० व० में शून्यविभक्ति रूप । दीसइ-दृश्यते, कर्मवाच्य रूप ।
वाउल-< वातुलाः, कर्ता ब० व० (भम्मरा का विशेषण) (हि. बावला, पू० राज० बावळो) । १९६. जहि-C. जइ, N. जहिं । विण्ण वि-N. वि दुवि । पंचम-C. पंचह । जोहलो-C. तोमरो । छहि-C. जहि अहि, N. जहिं ठाइ छ?हि । दीसइ-C. दिस्सइ । सह-A. B. सल्ल । सइ-A. B. सोइ, C. K. सुह । १९७. जह-C. N. O. जहि । फुल-A. B. फुल्ल । चूअ-C. चुअ । वंजुला-A. B. वज्जुला । पाम्म -A. पम्म, C. N. गंधबन्धु । कोतुक-A. B.C. कौतुक, N. कोउक । तरुणीजणा-C. तरुणीमणा । १९७-C. २०० N. २५४ ।
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