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________________ २.१८३] वर्णवृत्तम् [१५३ १८२. जहाँ प्रत्येक चरण में एक इन्द्रासन (यगण) ही सुशोभित हो, तथा जहाँ सुंदर लघु अक्षर वाले (यगण में आद्यक्षर सदा लघु होता है) अठारह अक्षर स्थान स्थान पर (प्रत्येक चरण में) सुशोभित हों, जहाँ सुंदर चरण में दस की तिगुनी (तीस) सबल मात्रा हों-फणीन्द्र कहते हैं, वह क्रीडाचन्द्र (क्रीडाचक्र) छंद निबद्ध होता है। (कीडाचन्द्रः-(छ: यगण) ।ऽऽ ।ऽऽ ।ऽऽ ।ऽऽ ।ऽ5 155 = १८ वर्ण) । टिप्पणी-सुहावेहि / शोभायते (सुहावेइ के अंतिम स्वर की सप्राणता (एस्पिरेशन) । 'सुहावेइ' वस्तुत: णिजंत का रूप होगा । प्रा० पैं० की भाषा का वास्तविक रूप 'सुहावइ' होना चाहिए । जहा < यत्र । जहा, जहा भूत वेताल णच्चंत गावंत खाए कबंधा, सिआ फारफक्कारहक्का खंता फुले कण्णरंधा । कआ टुट्ट फुट्टेइ मंथा कबंधा णचंता हसंता, तहा वीर हम्मीर संगाम मज्झे तुलंता जुझंता ॥१८३॥ १८३. उदाहरण: जहाँ भूतवेताल नाचते हैं, गाते हैं, कबंधों को खाते हैं, श्रृगालियाँ अत्यधिक शब्द करती चिल्लाती है, तथा उनके चिल्लाने से कानों के छिद्र फूटने लगते हैं, काया टूटती है, मस्तक फूटते हैं, कबंध नाचते हैं और हँसते हैं-वहाँ वीर हमीर संग्राम में तेजी से युद्ध करते हैं। टिप्पणी-णच्चंत, गावत (नृत्यन्, गायन्), वर्तमानकालिक कृदंत रूप । खाए < खाअइ < खादयति । टुट्ट < त्रुटति; फुट्टेइ < स्फुटति । तुलंता < त्वरयन् । जुझंता < युद्ध्यमानः (*युद्ध्यन्) वर्तमानकालिक कृदंत । चर्चरी छंदःआइ रग्गण हत्थ काहल ताल दिज्जहु मज्झआ, सद्द हार पलंत बिण्ण वि सव्वलोअहि बुज्झिआ । बे वि काहल हार पूरहु संख कंकण सोहणा, णाअराअ भणंत सुंदरि चच्चरी मणमोहणा ॥१८४॥ ४. जहाँ प्रत्येक चरण में आरंभ क्रमशः रगण, हस्त (सगण), काहल (लघु), ताल (गुरु लघु रूप त्रिकल ) देना चाहिए, मध्य में शब्द (लघु), हार (गुरु) दो बार पड़ें, अंत में दो काहल (लघु) एक हार (गुरु), तब फिर सुंदर शंख (लघु) तथा कंकण (गुरु) हों,-नागराज कहते हैं, हे सुंदरि, यह मन को मोहित करने वाला चर्चरी छंद है। (चर्चरी:-5555ऽऽ।ऽ।ऽ=१८ वर्ण) । टि०-दिज्जहु-विधि प्रकार (ओप्टेटिव) का म० पु० ब० व० । पलंत-< पतन् (अथवा पतन्तौ), वर्तमानकालिक कृदंत । सव्वलोअहि-< सर्वलोकैः, 'हि' करण ब० व० । बुज्झि-< बुद्धं, (कुछ टीकाकारों ने इसे 'चर्चरी' का विशेषण माना है:-'बुद्धा' (स्त्रीलिंग), अन्य ने इसे 'बिण्ण १८३. जहा-C. जहीं, N. जहाँ । भूत-C. भूत । णच्चंत-णाचंत । कबंधा-N. क्कबन्धा । फारफेक्कार -0. फेरफक्कार। वंता-N. चलन्ती । टुट्ट-N. दुट्ट । तहा-C. N. तहाँ । मज्झे-A. B.C. मझ्झे, N. मज्ज । जुझंता-A. जुझंता, B. जुझंता, C. वुल्लंता, N. जुलन्ता, K. जुअंता । ०. जुलंता । १८३-C. १७९, N. २३० । १८४. हत्थ-C. मत्त । मज्झआ-A. मझ्झआ, B. मज्जआ, N. मज्जआ। बुज्झिआ-A. बुझ्झआ, B. बुज्जिआ, C. बुझ्झिआ। बे वि-A. देवि । मण-A. B. भण । १८४C. १८०, N. २३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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