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१४२] प्राकृतपैंगलम्
[२.१५४ पंचदशाक्षरप्रस्तार, भ्रमरावली छंदः
कर पंच पसिद्ध विलद्धवरं रअणं, पभणंति मणोहर छंदवरं स्अणं ।
गुरु पंच दहा लहु एरिसिअं रइअं, भमरावलि छंद पसिद्ध किअं ठविअं ॥१५४॥ १५४. जहाँ पाँच कर (गुर्वंत सगण) प्रसिद्ध हो, तथा इस प्रकार सुंदर रचना की गई हो;-इसे मनोहर श्रेष्ठ छन्दोरत्न कहते हैं-पाँच गुरु तथा दस लघु इस प्रकार रचना की जाय, इसे (पिंगल ने) प्रसिद्ध भ्रमरावली छन्द बनाकर स्थापित किया है।
(भ्रमरावली:-|||||5||s=१५ वर्ण) टिप्पणी-रअणं-< रचनं; रअणं < रत्नं (त का लोप अ का आगम) । एरिसिअं< एतादृशं > एआरिसं-एआरिसिअं > एरिसिअं। किअं-< कृतं, ठविअं < स्थापितं, कर्मवाच्य भूतकालिक कृदन्त रूप । जहा, तुअ देव दुरित्तगणाहरणा चरणा, जइ पावउ चंदकलाभरणा सरणा । परिपूजउ तज्जिअ लोभ मणा भवणा सुह दे मह सोकविणासमणा समणा ॥१५५॥ [भमरावली] १५५. उदाहरण:
हे चन्द्रकला के आभूषणवाले देव, हे शिव, यदि मैं पापों के समूह का अपहरण करनेवाले तुम्हारे चरणों को शरण रूप में प्राप्त करूँ, तो लोभ में मन तथा घरबार छोड़कर सदा आपकी पूजा करूँ, हे लोगों के शोक का निवारण करने में मनवाले, हे शांति देनेवाले (शमन), मुझे सुख दो ।
टिप्पणी- भरणा, सरणा, मणा, भवणा, “समणा, समणा-इन सभी में छन्दोनिर्वाहार्थ पदान्त स्वर को दीर्घ बना दिया गया है।
पाव-< प्राप्नोमि, वर्तमानकाल उत्तम पु० ए० व० (हि. पाऊँ) पूरिपूजऊ-< परिपूजयामि, वर्तमान उत्तम पु० (हिंदी पूनँ) । तज्जिअ-त्यक्ता, पूर्वकालिक क्रिया रूप । दे-< देहि, आज्ञा म० पु० एक व० (/दे+०) मह-< मह्यं । सारंगिका छंदःकण्णा दिण्णा सत्ता अंते एक्का हारा माणीआ,
पण्णाराहा हारा सारंगिक्का छंदा जाणीआ । तीसा मत्ता पाए पत्ता भोईराआ जंपंता
छंदा किज्जे कित्ती लिज्जे सूणी मत्था कंपंता ॥१५६॥ १५६. जहाँ प्रत्येक चरण में पहले सात कर्ण (गुरुद्वय) अर्थात् १४ गुरु दिये जायें तथा अन्त में एक हार (गुरु) समझो; (इस तरह) पन्द्रह गुरु (होने पर) सारंगिका छन्द जाना जाता है। भोगिराज (सर्पराज पिंगल) कहते हैं, इसमें प्रत्येक चरण में तीस मात्रा होती है, इस छन्द की रचना करो, कीर्ति प्राप्त करो, (इसे) सुनकर (श्रोता का) मस्तक काँपने (झूमने) लगता है।
(सारंगिका-555555555555555=१५ वर्ण, ३० मात्रा) १५४. पसिद्ध-B. सिद्ध । विलद्ध-C. तिलद्ध । रअणं-C. वअणं । रइअं-C. लविअं । ठवि-N. ठइअम् । १५५. तुअ-B. तुह । देव-0. देउ। परिपूजउ-B. परिपूज्जउ, C. परिपूजउँ। तज्जिअ-C. तेज्जिए । भवणा-C. भरणा । सुह दे मह-A. सूख दे मह, C. सुख पेल्लउ । “सोक-C. लोक । १५५-C. १५१ । १५६. माणीआ-C. पाईआ। पण्णाराहा-B. पण्णाहीरा । सारंगिका-C. सारंगिक्का । पाए पत्ता-C. पाएँ पाएँ । छंदा-C. चो छंदा । किज्जे-C. विज्जे । मत्था-K. मंथा । १५६.-C. १५२ ।
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