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________________ १३६] प्राकृतपैंगलम् [२.१३५ ध्वनि के कारण यह वसंत दुरंत (हो गया है), क्या काम निर्दय है अथवा कांत (पति) निर्दय है ? टिप्पणी-कआ (=काआ) < काया, छन्दोनिर्वाहार्थ ह्रस्वीकृत रूप । भउ < भूता, कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत रूप ।। गरास < ग्रास, 'अ' ध्वनि का आगम 1 मोदक छंद : तोटअ छंद विरीअ ठविज्जसु, मोदअ छंदअ णाम करिज्जसु । चारि गणा भगणा सुपसिद्धउ, पिंगल जंपइ कित्तिहि लुद्धउ ॥१३५॥ १३५. तोटक छंद को विपरीत (उलटा) स्थापित करना चाहिए, तथा इस छंद का नाम मोदक करना चाहिए, इसमें चार भगण प्रसिद्ध हैं, कीर्तिलुब्ध पिंगल ऐसा कहते हैं। टिप्पणी-विरीअ < विरीतं (=विपरीतं) । (मोदक = | | | S=१२ वर्ण) जहा, गज्जउ मेह कि अंबर सावर, फुल्लउ णीव कि बुल्लउ भम्मर । एक्कउ जीअ पराहिण अम्मह, की लउ पाउस कीलउ वम्मह ॥१३६॥ [मोदक] १३६. उदाहरण:कोई विरहिणी कह रही है: बादल गरजें, आकाश श्यामल (हो), कदंब फूलें, अथवा भौरें बोले; हमारा जीव अकेला ही पराधीन है, इसे या तो वर्षा ऋतु ले ले, या कामदेव ले ले । टिप्पणी-गज्जउ < गर्जतु; फुल्लउ < फुल्लतु, बुल्लउ, Vबुल्ल देशीधातु+3; ये सब अनुज्ञा प्र० पु० ए० व० के रूप हैं। सावर (=सावर) < श्यामल: > सामलो > सावरु > सावर । पराहिण (=पराहीण) < पराधीन, छंदोनिर्वाहार्थ दीर्घ 'ई' का इस्वीकरण । तरलनयनी : णगण गण कइ चउगण, सुकइ कमलमुहि फणि भण । तरलणअणि सव करु लहु, सव गुरु जवउ णिवरि कहु ॥१३७॥ १३७. हे कमलमुखि; जहाँ नगण, नगण इस प्रकार चार गण हो (अर्थात् चार नगण हों), सुकवि फणी कहते हैं उस तरलनयनी छंद में सब वर्गों को लघु करो तथा समस्त गुरुवाले भेदों का निराकरण करके उसे (तरलनयनी छंद) कहो । (तरुणनयनी:-।। || || ||=१२ वर्ण) टिप्पणी-णिवरि-< निवार्य, पूर्वकालिक क्रिया । जहा, कमलवअण तिणअण हर, गिरिवरसअण तिसुलधर । ससहरतिलअ गलगरल, वितरउ महु अभिमत वर ॥१३८॥ [तरलनयनी] १३५. तोटअ-A. तोलअ, N. तोडअछं । छंद-0. जं । विरीअ-N. विपरीअ, 0. विवरीअ । ठविज्जसु-N. ठुविज्जसु । मोदअ छंदअ-N. मोदहछन्दह । १३६. सावर-C. N. O. सामर । वुल्लउ भम्मर-C. भम्मउ भामइ । एक्कड़-C. O. एक्कल । अम्मह0. अह्मह। की ल-A. की लेउ । १३७. गण-N. गुण । सुकइ-A. सूकइ । जव-A. अवउ । कहु-A. कह । C. प्रतौ "तरलणअणि सर सव लहु स गुरु जअण णिरवि करहु" इत्येतत् उत्तरार्धं प्राप्यते । १३८. तिणअण हर-A. तिण हर । तिसुलधरC. तिसूलधर । ससहर-B. ससधर । गलगरल-A. B. N. गलगरल, C. मअणदम, K. 0. पलअकर । वितर-C. N. 0. वितरहि । महु-N. महि । अभिमत-B. अहिमत । Jain Education International For Private & Personal Use Only .www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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