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________________ २.१३१] वर्णवृत्तम् [१३५ तुअ-< तव (दे० पिशेल $ ४२१ पृ. २९७) । कुप्पिअ-< कुपितः (=कुपिअ; द्वित्वप्रवृत्ति छन्दोनिर्वाहार्थ) । रण-< रणे, अधिकरण कारक ए० व० में प्रातिपदिक का प्रयोग । तज्जि-< त्यक्त्वा, पूर्वकालिक रूप । सारंगरूपक छंदः जा चारि तक्कार संभेअ उक्विटु, सारंगरूअक्क सो पिंगले दिट्ठ । जा तीअ वीसाम संजुत्त पाएहि णा जाणिए कंति अण्णोण्णभाएहि ॥१३१॥ १३१. जहाँ चार तकार (तगण) का उत्कृष्ट संबंध हो, पिंगल में उसे सारंगरूपक के रूप में देखा गया है, जहाँ प्रत्येक चरण में तृतीय अक्षर पर यति (विश्राम) हो, उस छंद की कांति किसी से नहीं जानी जा सकती। (सारंगरूपक:55155155155=१२ वर्ण) टिप्पणी-उक्किट्ठ-< उत्कृष्टं । वीसाम-< विश्राम; > विस्सामो > विस्सामु > वीसाम । जाणिए-ज्ञायते (प्राकृतरूप आत्मनेपदी)। जहा, रे गोड थक्कंतु ते हथिजूहाइ, पल्लट्टि जुज्झंतु पाइक्कवूहाइ । कासीस राआ सरासारअग्गेण की हत्थि की पत्ति की वीरवग्गेण ॥१३२॥ [सारंगरूपक] १३२. हे गौडराज, तुम्हारे हाथियों के झुण्ड आराम करें, तुम्हारे पैदल सिपाहियों की सेना लौटकर लड़े, काशीश्वर राजा के बाणों की वृष्टि के आगे हाथियों से क्या, पैदलों से क्या, वीरों से क्या ? टिप्पणी-थक्कंतु-(=श्राम्यन्तु), जुझंतु (युध्यंताम्), अनुज्ञा म० पु० ब० व० । पल्लट्टि-(=पलट्टि) < परावर्त्य, पूर्वकालिक क्रिया; 'ल' का छन्दोनिर्वाहार्थ द्वित्व । मौक्तिकदाम छंदः पओहर चारि पसिद्धह ताम, ति तेरह मत्तह मोत्तिअदाम । ण पुव्वहि हारु ण दिज्जइ अंत, बिहू सअ अग्गल छप्पण मत्त ॥१३३॥ १३३. जहाँ चार पयोधर (जगण) प्रसिद्ध हों, (प्रत्येक चरण में) तीन और तेरह (अर्थात् ३+१३=१६) मात्रा हों;वह मौक्तिकदाम छंद है; यहाँ आदि में या अंत में हार (गुरु) नहीं दिया जाता; यहाँ (सोलह चरणों में) दो सौ अधिक छप्पन (२००+५६२५६) मात्रा होती हैं । (इस प्रकार एक छंद में २५६:४६४ मात्रा होती हैं ।) टिप्पणी-जाम < यस्मिन्; दिज्जइ < दीयते । कर्मवाच्य रूप । (मौक्तिकदाम-||5||5)=१२ वर्ण) । जहा, कआ भउ दुव्वरि तज्जि गरास, खणे खण जाणिअ अच्छ णिसास । कहरव तार दुरंत वसंत, कि णिद्दअ काम कि णिहअ कंत ॥१३४॥ [मौक्तिकदाम ] १३४. उदाहरण:किसी विरहिणी की दशा का वर्णन है। भोजन (ग्रास) छोड़ कर उसकी काया दुबली हो गई है, क्षण क्षण में निःश्वास ज्ञात होता है; कोकिला की तार १३१. उक्किट्ठ-C. उक्किठ्ठ। दिट्ठ-C. दिछ । पाएहि-C. पाएहिं । कंति-A. कित्ति, C. वत्ति । अण्णाण्ण-C. अण्णण्ण । भाएहिC. भाएण । १३२. गोड-A. गौड, C. गउड । थक्कंतु-K. थक्कंति । जूहाइ-A. B. बूहाइ, C. जूथा। जुज्झंतु-A. झुज्झंतु, N. जुडंतु, C. वजंण । वूहाइ-A. B. व्हाइ, C. जूथाई, N. वूहाइँ । १३३. ताम-A. B. जाम । पुव्वहि-N. पूव्वहि । हारुA. N. हार । १३४. भ-C. भअ, N. भनु । दुव्वरि-C. N. दुव्वर । तज्जि -N. तज्ज, O. तेजु । खणे खण-खणे खणे। अच्छ-C. दीह । दुरंत-C. दुरन्त । वसंत-C. वसन्त । कंत-C. कन्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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