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________________ २.९१] वर्णवृत्तम् [१२३ ९०. हे सखि, जिसके आदि में (प्रत्येक भाग में) हस्त (गुर्वंत सगण), इसके बाद दो पयोधर (मध्यगुरु जगण) तथा अंत में गुरु हो, वह पिंगल द्वारा उक्त संयुता छन्द है । (संयुता-15, 151, 151, 5) | टिप्पणी-विआणिओ-< विज्ञातः, जाणिओ < ज्ञातः, जम्पिओ < जल्पितं । थप्पिओ-< स्थापितं, कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत रूप । जहा, तुह जाहि सुंदरि अप्पणा, परितज्जि दुज्जणथप्पणा । विअसंत केअइसंपुडा णहु एवि आविअ वप्पुडा ॥९१॥ ९१. उदाहरण:कोई सखी नायिका को स्वयं अभिसरण करने की सलाह देती कह रही है : हे सुन्दरी, तू स्वयं ही दुष्ट व्यक्तियों के द्वारा स्थापित व्यवस्था (कुलीनाचरण) को छोड़कर अपने आप ही (उसके समीप) जा; ये केतकी के फूल फूल रहे हैं और वह बेचारा अभी भी नहीं आया है। टिप्पणी-तुह-< त्वं; मूलत: 'तुह' म० भा० आ० में सम्प्रदान-सम्बन्ध कारक ए० व० रूप है (दे० पिशेल , ४२१ पृ. २९७) वैसे प्राकृत में 'तुह' का प्रयोग कर्म कारक ए० व० में भी मिलता है (वही ६ ४२० पृ. २९८) । कर्ता कारक ए० व० में अपभ्रंश में इसका रूप 'तुहुँ' मिलता है (पूर्वी अप०) (तगारे ६ १२० ए) । तगारे ने भी 'तुह' शब्द का संकेत सम्प्रदान-संबंध-अपादान कारक ए० व० में किया है (वही $ १२० ए, पृ. २१६) अवहट्ट काल में आकर संबंधवाले रूपों का इतना अधिक प्रसार हुआ है कि वे कहीं कहीं कर्ता-कर्म में भी प्रयुक्त होने लगे हैं। अथवा इसका विकास सीधे 'तुहुँ' से भी माना जा सकता है। अवहट्ठ में कर्ता कारक ए० व० 'उ' के लोप का प्रभाव यहाँ पड़ा जान पड़ता हे तथा 'तुहुँ' > तुहु > तुह के कम से इसका विकास हुआ है। जाहि-< याहि, अनुज्ञा म० पु० ए० व० । अप्पणा-< आत्मना, प्रा० में 'अप' (आत्मन्) शब्द के करण ए० व० में 'अप्पण' (म०, अर्धमा० जैनम०, शौ०) अप्पेण, अप्पेणं (अर्धमा०), अप्पाणेणं (अर्धमा०), अप्पणेण (म०) रूप मिलते हैं (दे० पिशेल ६ ४०१) । प० अप० में इसके अप्पें, अप्पि, अप्पु (?), अप्पा-ए, अप्पुणु, अप्पएण, अप्पणे, तथा पूर्वी अप० में अप्पहि (दोहाकोष) रूप मिलते हैं । 'अप्पण' रूप सम्बन्ध कारक में मिलता है (दे० तगारे ६ १२९ ए) । इसी 'अप्पण' का 'आ' वाला रूप 'अप्पणा' है। परितज्जि । परित्यज्य, पूर्वकालिक क्रिया रूप । विअसंत केअइसंपुडा-प्रायः समी टीकाकारों ने इसे समस्त पद 'विकसत्केतकीसंपुटे' (काले प्रावृषि इति शेषः) का रूप माना है। एक टीकाकार ने 'विकसंतु केतकीसंपुटाः' अर्थ किया है। ये दोनों अर्थ गलत हैं। मैं इसका अर्थ 'विकसंतः केतकीसंपुटाः (संति)' करना ठीक समझता हूँ, तथा 'विअसंत' को समस्त पद का अंग नहीं मानता, न इसे अनुज्ञा प्र० पु० ब० व० का रूप ही । वस्तुतः यह वर्तमानकालिक क्रिया के लिए वर्तमानकालिक कृदंत का ब०व० के अर्थ में शुद्ध प्रातिपदिक प्रयोग है। आविअL आयातः > आइओ > आइअ से 'व' श्रुति वाला रूप 'आविअ' बनेगा । वप्पुडा-देशी शब्द (अर्थ 'वराकः, बेचारा), (पू० राज, 'भापड़ो' ब्र० बापुरो) । चंपकमाला छंद : हार ठवीजे काहलदुज्जे कुंतिअ पुत्ता ए गुरुजुत्ता । हत्थ करीजे हार ठवीजे चंपअमाला छंद कहीजे ॥१२॥ ९२. जहाँ पहले हार (गुरु) स्थापित किया जाय, इसके बाद दो काहल (लघु), फिर गुरुयुक्त कुंतीपुत्र (कर्ण अर्थात् ९१. तुह-B. तहु । परितज्जि -K. परितेज्जि । संपुडा-N. O. संपुला । णहु-K. O. णिहु । एवि-K. एहु । आविअ-A. आवइ, K. आविह, 0. आइहि । वप्पुडा-C. N. वप्पुला । ९२. ठवीजे-C. ठविज्जे । ए गुरुजुत्ता-0. हारसजुत्ता । हत्थC. जत्थ । करीजे-C. ठवीए, ०. करिज्जे । ठवीजे-C. करीजे, ०. ठविज्जे । कहीजे-C. मुणीजे, ०. करिज्जे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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