________________
निवेदन
हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन में 'प्राकृतपैंगलम्' का महत्त्व प्रायः सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है। आदिकालीन साहित्य का यह संग्रह-ग्रंथ भाषा, साहित्य, और छन्द:परम्परा की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। हेमचंद्र के व्याकरण में उपलब्ध परिनिष्ठित अपभ्रंश तथा मध्यकालीन ब्रजभाषा के बीच की कड़ी के तौर पर इसका संकेत तेस्सितोरी, डा० चाटुा आदि विद्वानों ने समय समय पर किया है, और प्राकृतपैंगलम् को हिंदी साहित्य के इतिहास में आचार्य शुक्ल ने समाविष्ट कर पुरानी हिंदी के वीरगाथाकालीन साहित्य में इसकी गणना करने का दिनिर्देश किया है। राहुल जी ने सबसे पहले 'हिंदी काव्यधारा' में प्राकृतपैंगलम् में संगृहीत पुरानी हिंदी मुक्तक पद्यों को हिंदी पाठकों के सामने रख कर कहा था; 'ये तुम्हारे ही कवि हैं, इन्हें न भुला देना।' इस ग्रंथ का शीर्षक प्राकृतपैंगलम् कुछ ऐसा है, कि हिंदी के विद्वान् बरसों तक इसे हिंदी से बाहर की चीज समझते रहे और शायद कुछ लोगों की अभी तक यही राय बनी हुई हो । जैसा कि मैने अनुशीलन में बताया है, विद्यापति से पुरानी, आदिकालीन हिंदी साहित्य की परम्परा यहीं सुरक्षित है।
__'प्राकृतगलम्' का भाषाशास्त्रीय महत्त्व इसलिये है कि पुरानी पश्चिमी हिंदी के निदर्शन सबसे पहले यहीं मिलते हैं । विद्यापति की 'कीर्तिलता' की भाषा से भी 'प्राकृतपैंगलम्' के कई उदाहरणों की भाषा आगे बढ़ी हुई है। वैसे नव्य भाषाशास्त्री प्रायः विवरणात्मक या 'सिन्क्रोनिक' भाषाशास्त्र पर ज्यादा जोर देते हैं, फिर भी तुलनात्मक एवं ऐतिहासिक या 'डाइक्रोनिक' भाषाशास्त्र के महत्त्व से इन्कार नहीं किया जा सकता । पुरानी हिंदी का भाषाशास्त्रीय अध्ययन आज की पूरबी राजस्थानी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुन्देली, खड़ी बोली आदि के विवरणात्मक अध्ययन के लिए महत्त्वपूर्ण पृष्ठभूमि का काम करेगा। इसलिये मैंने अनुशीलन में प्राकृतपैंगलम् की भाषा का अध्ययन करते समय प्राकृत, अपभ्रंश, पश्चिमी और पूरबी हिंदी विभाषायें, तथा गुजराती, राजस्थानी, भोजपुरी, मैथिली, बँगला जैसी अन्य नव्य भारतीय आर्य भाषाओं को परिपार्श्व में रखने का प्रयत्न किया है। संदेशरासक जैसी उत्तर अपभ्रंश (लेटर अपभ्रंश) कृतियाँ, उक्तिव्यक्ति, वर्णरत्नाकर जैसे पुरानी पूरबी हिंदी के ग्रंथ, तथा कान्हडदेप्रबंध, ढोल मारूरा दोहा जैसी जूनी राजस्थानीगुजराती कृतियों की भाषा तथा मध्यकालीन ब्रज, अवधी और दक्खिनी हिंदी का प्राकृतपैंगलम् की भाषा के साथ तुलनात्मक अनुशीलन उपस्थित किया गया है। पुरानी पश्चिमी हिंदी को इतने विस्तृत परिवेश से रखकर देखे बिना हम विषय के साथ न्याय भी नहीं कर सकते ।।
'प्राकृतपैंगलम्' का दूसरा महत्त्व हिन्दी छन्दःशास्त्र की दृष्टि से है। मानों प्राकृतपैंगलम् की छन्दःपरम्परा को ज्यों का त्यों मध्यकालीन हिन्दी छन्दःशास्त्रियों ने अपना लिया है। केशव, सुखदेव मिश्र, भिखारीदास, गदाधर आदि हिंदी छंदःशास्त्रियों के लक्षणों पर ही नहीं, छन्दों की बदलती रूप-सज्जा पर भी प्राकृतपैंगलम् या उसकी छंद:परम्परा का गहरा असर है। इतना होने पर भी इनमें से अधिकांश छन्दों की परम्परा इतनी पुरानी है कि उसकी जड़ें, स्वयंभू और हेमचन्द्र तक ही नहीं, इससे भी गहरी जान पड़ती हैं । सवैया जैसे छन्दों की कहानी का पता तो 'प्राकृतपैंगलम्' को देखे बिना चल ही नहीं सकेगा । इतना ही नहीं, घनाक्षरी के विकास पर भी 'प्राकृतपैंगलम्' अप्रत्यक्ष संकेत तो कर ही सकता है कि तब तक घनाक्षरी के मध्ययुगीन रूप का जन्म न हो पाया था । 'प्राकृतपैंगलम्' के छन्दःशास्त्रीय अनुशीलन में 'प्राकृतपैंगलम्' के छन्दोविवेचन को केन्द्र (nucleus) बनाकर प्राकृत और अपभ्रंश कविता से लेकर हिंदी कविता तक के प्रमुख मात्रिक और वर्णिक छंदों की बदलती शक्ल की ऐतिहासिक, शास्त्रीय तथा तुलनात्मक कहानी मिलेगी।
'प्राकृतपैंगलम्' का तीसरा महत्त्व शुद्ध साहित्यिक है। इसमें उदाहृत अनेक पद्य आदिकालीन हिन्दी साहित्य की मुक्तक काव्यपरम्परा की मजबूत कड़ी हैं, इसका संकेत भी अनुशीलन में मिलेगा । इसके साहित्यिक महत्त्व के बारे में मुझे राहुल जी के इन शब्दों के अलावा और कुछ नहीं कहना है; "काल ने बड़ी बेदर्दी से हमारे पुराने कवियों की छंटाई की है। जाने कितने उच्च कवियों से आज हम वंचित हैं । लेकिन इस छंटाई के बाद जो कुछ हमारे पास बचकर चला आया है, उसकी कद्र और रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। ऐसा करके ही हम अपने पूर्वजों का
[13]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org