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प्राकृतपैंगलम्
[२.४६
- जहा,
कंससंहारणा पक्खिसंचारणा ।
देवईडिंभआ देउ मे णिब्भआ ॥४६॥ (विज्जोहा) (विमोहा ?) ४६. उदाहरण:कंस को मारने वाले, पक्षी गरुड़ पर संचरण करनेवाले, देवकी के पुत्र मुझे (अभय) प्रदान करें । टि०-णिब्भआ-छन्दोनिर्वाह के लिए दीर्धीकरण; कर्म ए० व० । चतुरंसा छंद :
ठउ चउरंसा फणिवइ भासा ।
दिअवर कण्णो फुलरसवण्णो ॥४७॥ ४७. (जहाँ) द्विजवर (चार लघु) तथा कर्ण (दो गुरु) छ: वर्ण हों, उस चतुरंसा छंद की स्थापना करो-ऐसा फणिपति पिंगल कहते हैं । कुछ टीकाकार इसका अर्थ ऐसे भी करते हैं :-".... फणिपति भाषित चतुरंसा की स्थापना करो ।"
टि०-ठ-< स्थापय; आज्ञा म० पु० ए० व० ।
जहा,
गउरिअकंता अभिणउ संता ।
जइ परसण्णा दिअ महि धण्णा ॥४८॥ ४८. उदाहरण:
(ताण्डव) अभिनय में रत (अथवा ताण्डव अभिनय से श्रांत) गौरीपति (महादेव) प्रसन्न हों, तो आकाश और पृथ्वी दोनों धन्य हैं।
टि०-गउरिअकंता-< गौरीकांतः, 'गौरी' < गउरि, समास में बीच में 'अ' का आगम संभवतः छन्दोनिर्वाह के लिए हुआ है अथवा यह 'गौरिका' का रूप है। 'कांत' के प्रथमाक्षर के सानुस्वार होने के कारण उसके 'आ' को 'अ' बना दिया गया है, क्योंकि ऐसा करने से शब्द के अक्षरभार (सिलेबिक वेट) पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । (तु० राज० कंत) 'आ' छंदोनिर्वाह के लिए है। - अभिणउ संता-(१) अभिनये सन्, (२) अभिनय श्रांतः । म० भा० आ० में अभिनयः > अहिणओ > अहिणउ रूप होंगे। यह रूप अर्धतत्सम है। 'संता' < सन् वर्तमानकालिक कृदंत रूप 'संत' का दीर्घाकृत रूप ।
परसण्णा प्रसन्नः-'प्र' में 'अ' वर्ण का मध्य में आगम होने से 'पर' रूप, 'आ' छन्दोनिर्वाहार्थ दीर्धीकरण की प्रवृत्ति है।
धण्णा <धन्यौ (*धन्याः ) कर्ताकारक ब० व० रूप । जहा वा,
भुअणअणंदो तिहुअणकंदो।
भमरसवण्णो स जअइ कण्हो ॥४९॥ [चतुरंसा] ४९. अथवा दूसरा उदाहरण यह है :समस्त भुवन के आनंद स्वरूप, त्रिभुवन के मूल, भ्रमर के समान नील कृष्ण की जय हो ।
टिप्पणी-कण्हो-< कृष्णः, वर्णविपर्यय (ष्ण > ग्रह) (हि० कान्ह) । ४६. संहारणा-C. संघारणा । डिभआ-C. डिवआ, K. डिबआ, N. डिम्भआ। णिब्भआ-C. लछिआ, C. K. 0.णिभ्भआ, N. णिम्भआ। ४७. चउरंसा-C. चउवंसा । ४८. गउरिअ-C. प्रतौ एतत्पदं न प्राप्यते, K. गवरिअकंता । अभिण-N. अभिनउ। 0. न प्राप्यते । ४९. भुअणअणंदो-C. णअणसुणंदो-0. णअणअणंदो । तिहुअण-A. B. तिहुअण । "कंदो-"वंदो । कण्हो C. K. कण्णो, 0. कणो ।
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