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१०८] प्राकृतपैंगलम्
[२.३८ कोई समानांतर रूप नहीं है, पर ठीक इसीका विकास राजस्थानी में पाया जाता है:-'दीज्यो' (या पोथी ऊनैदीज्यो (तुम यह पुस्तक उसे देना) ।
मुणिज्जो-यह भी विधि म० पु० ब० व० रूप है। दे० दिज्जो । जहा,
सो मह कंता दूर दिगंता ।
पाउस आवे चेउ चलावे ॥३८॥ [हंस] ३८. उदाहरण:वह मेरा प्रिय दूर देश में है। वर्षा ऋतु आती है, चित्त को चला रही है। टिप्पणी-मह-मम । (दे० पिशेल ६ ४१५, $ ४१८) ।
कंता, दिगंता-दीर्धीकरण-छंदोनिर्वाह के लिए । (मूल रूप : कंत, दिगंत) पाउस प्रावृष>पाउस-(हि० राज० पावस) ।
आवे-/आ+ए; वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व० । चेऊरचेत:>चेओ>चेउ; कर्मकारक ए० व० । चलावे; णिजन्त क्रिया रूप वर्तमान काल प्र० पु० ए० व० । यमक छंद:
सुपिअगण सरस गुण ।
सरह गण जमअ भण ॥३९॥ ३९. हे सुगुण, जहाँ श्लाघ्यगुण, प्रिय गण लघु (शर) हों अर्थात् जहाँ पाँचों अक्षर लघु हों, उसे यमक छंद कहो। (1||||I) जहा,
पवण वह सरिर दह ।
मअण हण तवइ मण ॥४०॥ [यमक] ४०. उदाहरण:
कोई प्रोषितभर्तृका अपनी विरह दशा का वर्णन कर रही है:-पवन चल रहा है, शरीर को जलाता है, कामदेव (मुझे) मार रहा है, मन तप रहा है।
टिप्पणी-सरिस-< शरीरं; कर्मकारक ए० व० । कुछ टीकाकारों ने 'शरीरं दह्यते' रूप माना है तथा इस तरह 'दह' को कर्मवाच्य क्रिया रूप माना है, जो ठीक नहीं जंचता । 'सरिर' (सरीर) में छन्दोनिर्वाहार्थ 'इ' ध्वनि को ह्रस्व बना दिया गया है।
वह, दह, हण-ये तीनों वर्तमानकालिक क्रिया प्र० पु० ए० व० के शुद्ध धातु रूप हैं। तवइ-< तपति; वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व० । षडक्षर छंदःप्रस्तार; शेष छंदः
बाराहा मत्ता जं कण्णा तिण्णा होत्तं ।
हारा छक्का बंधो सेसा राआ छंदो ॥४१॥ ४१. जहाँ तीन कर्ण (गुरुद्वय) अर्थात् छ: गुरु तथा बारह मात्रा हों, यह छ गुरु (हार) का बंध 'शेष' (नामक) श्रेष्ठ (राजा) छन्द है । (555555)
३८. मह-C. अहु, महु । चलावे-C. डुलावे, 0. डोलावे । ३९. गुण-C.O. भण । सरस गुण-B. N. सरसु गुण, C. 'गण । भण-0. गुण । ४०. दह-A. डह, B. दहु, C. N. सह 1 ४१. तिण्णा -C. तीआ। होत्तं-B. होज्जं । बंधो-C. वण्णो।
राआ-C. रूआ। Jain Education International
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