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________________ १.१६४] मात्रावृत्तम् [७९ > अवअरिअ (म० भा० आ०) > अवअरिउ (अव०) > अवअरु (यह रूप 'इ' का लोप करने से बनेगा)। धरि-< धृत्वा, पूर्वकालिक कृदन्त । वह-< वहति, शुद्ध धातु का वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व० में प्रयोग । सहव-< सोढव्यः, भविष्यत्कालिक कर्मवाच्य कृदन्त । संस्कृत 'तव्य' का प्राकृतकालीन विकास 'अव्व' पाया जाता है (दे० पिशेल ६ ५७०) तु० हसिअव्व, होदव्व (शौ० भाग), होयव्व (अर्धमा० जैनम०) पुच्छिदव्व (शौर०), पुच्छिव्व (अर्ध०) इसी से पूर्वी हिंदी के 'ब' वाले भविष्यत् क्रिया रूपों का विकास हुआ है । तु० (१) अवधी:-'घर कैसइ पैठब मइँ छूछे' (जायसी) 'हरि आनब मइ करि निज माया (तुलसी); दे० डॉ० सक्सेना 8 ३०५ । (२) भोजपुरी:-'हम मिठाई खाइबि' । दे० डॉ० तिवारी : भोजपुरी भाषा और साहित्य $ ५३६-३७ । यह बंगाली, उड़िया तथा असमिया में 'इब' तथा कोसली और बिहारी में 'अब' है। राजस्थानी में इसका विकास दूसरे रूप में हुआ है, क्रिया के 'इन्फिनिटिव' रूप को द्योतित करने के लिए इसका प्रयोग ठीक वैसे ही होता है, जैसे हिंदी में 'ना' (बैठना, खाना, पीना) का । पश्चिमी राजस्थानी में इसका 'वो' पाया जाता है:-पढवो, जावो, खावो, पीवो आदि, जब कि. पूर्वी राजस्थानी (जैपुरी-हाडौती) में इसका 'बो' रूप है:-पढबो, जाबो, खाबो, पीबो आदि । इस संबंध में इतना संकेत कर दिया जाय कि पूर्वी राजस्थानी में खड़ी बोली हिंदी, ब्रज आदि की भाँति संस्कृत 'व' सदा 'ब' हो जाता है, जब कि पश्चिमी राजस्थानी में वह सुरक्षित है। गुजराती 'V' (पढदूं, खार्दू भी इससे संबद्ध है। कह-< कथं । सुण-< शृणुः (Vसुण+०) आज्ञा म० पु० ए० व० । निअल-< निकटे । [माला छंद] पढम चरण ससिवअणि मिअणअणि णव दिअगण पअल पुण वि तह रअण ठवहु अंतए कण्णो । पिंगल णाअ भणंता माला सेसं पि गाहस्म ॥१६४॥ १६४. माला छंदः हे शशिवदने, हे मृगनयने, जहाँ प्रथम चरण (दल) में नौ द्विजगण (चतुर्लध्वात्म क. मात्रिक गण) पड़ें, फिर वहाँ रगण (मध्यलघु वर्णिक गण) हो, तथा अंत में कर्ण (दो गुरु) हो (अर्थात् प्रथम दल में ३६+३+२=४१ वर्ण तथा ३६+४+४ =४४ मात्रा हों) शेष (अर्थात् उत्तरार्ध द्वितीय दल) गाथा छंद का उत्तरार्ध हो, उसे पिंगल नाग माला छंद कहते हैं । (माला छंद : प्रथम दल; ४१ वर्ण, ४४ मात्रा : द्वितीय दल; २७ मात्रा) टि०-ठवहु-< स्थापयत; णिजंत रूप, आज्ञा म० पु० ब० व० । पिशेल ने बताया है कि णिजंत रूपों में संस्कृत (प्रा० भा० आ०) '-अय-' का प्राकृत में-'ए' रूप पाया जाता है। दे० पिशेल ६ ५५१. इस प्रकार 'ठवेहु' रूप भी मिलता है (दे० १-१६५) तथा यही वास्तविक रूप है । भणंता-वर्तमानकालिक कृदंत रूप। (भणंत < भणन्) 'आ' या तो छंदोनिर्वाहार्थ है, अथवा इसे आदरार्थे बहुवचन माना जा सकता है। गाहस्स-< गाथायाः; लिंगव्यत्यय का निदर्शन । पढम होइ णव विप्पगण जोहल कण्ण ठवेहु । गाहा अद्धा अंत दइ माला छंद कहेहु ॥१६५॥ १६४. णव-0. णउ । दिअगण-B. दिअवण । ठवहु-A. ठव, B. ठवहि । अंतए कण्णो -0. अंतक्कण्णो । सेसं पि-B. सेसं वि, C. K. 0. सेसम्मि । १६५. णव-0. णउ । दइ-A. देइ, B. देआ। कहेहु-C. करेहु, N. कदेहु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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