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________________ ७८ ] प्राकृतपैंगलम् १६१. शिखा छंद हे शशिवदने, गजगमने, जहाँ प्रत्येक चरण में पयोधर (जगण ) के साथ छः द्विज (चतुर्लघ्वात्मक मात्रिक) गण हों, (अर्थात् इस प्रकार प्रत्येक चरण में २४ + ३ = २७ वर्ण तथा २४ + ४ = २८ मात्रा हों); इस प्रकार प्रथम दल को पढ़ो फिर द्वितीय दल में आरम्भ में लघुद्वयात्मक दो गणों को स्थापित कर प्रथम दल की भाँति ही द्विजगण (छः चतुर्लघ्वात्मक गण) प्रकट हों, तथा जगण अधिक हो (अर्थात् द्वितीय दल में २४+३ वर्ण के पूर्व दो द्विलघुगण हों; इस तरह ४+२४+४=३२ मात्रा हों), वह शिखा छंद कहलाता है । इस सम्बन्ध में इतना संकेत कर दिया जाय कि सीधे साधे शब्दों में न कह कर लक्षणकार ने लक्षण का निबन्धन टेढे ढंग से किया है । हम यह कह सकते हैं कि शिखा छंद की प्रथम अर्धाली में आरम्भ में ६ चतुर्लघ्वात्मकगण तथा बाद में एक जगण (२७ वर्ण, २८ मात्रा) होता है, जब कि द्वितीय अर्धाली में ७ चतुर्लघ्वात्मक गण तथा बाद में एक जगण (३१ वर्ण, ३२ मात्रा) होता है। टिप्पणी- सह सिक्ख यहाँ 'सह' परसर्ग है, जिसका प्रयोग करण कारक के अर्थ में पाया जाता है । छन्दः सुविधा के लिए यहाँ वाक्ययोजना में विपर्यय पाया जाता है, वस्तुतः 'सिक्ख सह' होना चाहिए । अहर- पयोधर संस्कृत के हलंत शब्द म० भा० आ० में आकर अजंत हो गये हैं। इसके अनुसार संस्कृत 'पयस्' का 'पअ' होगा, इसका समस्त रूप भी इसीलिए 'पअहर' हो सकता है। वैसे म० भा० आ० में 'पयोधर' का 'पओहर' तथा अप० काल में सश्रुतिक (य- श्रुतियुक्त) रूप 'पयोहर' पाया जाता है, दे० 'पीणपओहरलग्गं दिसाणं पवसंत जलअसमअविइण्णम्' (सेतुबंध १.२४), 'मयणाहिअ मयवट्ट मणोहर चच्चिय चक्कावट्ट पयोहर' (संदेशरासक १७७) (उसका मनोहर मदनपट्ट (कामदेव के बैठने का सिंहासन, हृदय) तथा चक्राकार पयोधर (स्तन) मृगनाभि (कस्तूरी) से चर्चित थे ।) यद्यपि इस प्रकार हमें म० भा० आ० में 'पअहर' रूप नहीं मिलता तथापि इसे म० भा० आ० की व्याकरणिक प्रवृत्ति की दृष्टि से अशुद्ध नहीं कहा जा सकता। वैसे यह भी हो सकता है कि लक्षणकार ने 'पयोहर' (श्रुतिरहित रूप 'पओहर') कोही छन्दः सुविधा के लिए 'पअहर' बना दिया हो । प्रा० पैं० में 'पओहर', 'पअहर' दोनों रूपों का प्रयोग पाया जाता है । मत्त अठाइस पढमे बीए बत्तीस मत्ताइँ | [ १.१६२ अ अ अंते लहुआ सुद्धा सिक्खा विआणेहु ॥ १६२॥ [ गाहू १६२. प्रथम दल में अट्ठाइस मात्रा हों, द्वितीय दल में बत्तीस मात्रा; प्रत्येक चरण (दल) के अंत में लघु हों, उसे शुद्ध शिक्षा छंद समझो । टिप्पणी-अठाइस <अष्टाविंशति > अट्ठाइस > अठाइस । (पिशेल ने इसके अन्य म० भा० आ० रूपये दिये हैं :अट्ठावीस - अट्ठावीसा (प्राकृत), अट्ठाइस - अढाइस । ( अप० ) - दे० पिशेल $ ४४५ । प्रा० प० रा० अट्ठावीस - अट्वीस । टेसिटोरी $ ८० । जहा, Jain Education International फुलिअ महु भमर बहु रअणिपहु, किरण लहु अवअरु वसंत । मलअगिरि कुहर धरि पवण वह, सहव कह सुण सहि णिअल हि कंत ॥ १६३ ॥ [शिखा ] १६३. उदाहरण : मधूक (महुवे ) के वृक्ष फूल गये हैं, अनेकों भौरे ( गूंज) रहे हैं, रजनीपति चन्द्रमा की कोमल (लघु) किरणें (हैं), (सचमुच) वसंत ऋतु (पृथ्वी पर अवतीर्ण हो गया है । मलयपर्वत की गुफा का स्पर्श कर ( धारण कर) (दक्षिण) पवन बह रहा है । हे सखि सुन, प्रिय पास में नहीं है, (इसे) कैसे सहा जा सकता है (अथवा सहा जायेगा ) । टिप्पणी- फुल्लिअ - कर्मवाच्य (भाववाच्य) भूतकालिक कृदन्त का भूतकालिक क्रिया के लिये प्रयोग | अवअरु-कर्मवाच्य (भाववाच्य) भूतकालिक कृदन्त का भूत० क्रिया के रूप में प्रयोग । अवतीर्णः>*अवतरितः १६२. पढमे - A. पढमहि, B. पढम, C. N. पढमे, K. पढमो । मत्ताइँ - C. K. मत्ताइँ, A. B. N. मत्ताइ । १६३. फुलिअN. फुल्लिअ । भमर बहु - A. भमरु, N. भमरहु । लहु N. बहु O. वहु । अवअरु - C. वअरु । कुहर -0. गुहर । कह - 0. कत । सुण - K. सुणु, B. भण। णिअल हि - N. पिअल म णहि । For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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