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________________ ७६ ] प्राकृतपैंगलम् [ १. १५८ में ही मिलता हे :- 'श्रुहुजिलूधुवां णोऽन्त्ये ह्रस्वः' (८.५६ ) इस पर भामह की मनोरमा ऐसे है :- 'श्रु श्रवणे, हु दानादाने, जिजये, लूञ् छेदने, धूञ् कंपने, इत्येतेषामन्ते णः प्रयोक्तव्यः दीर्घस्य ह्रस्वो भवति । सुणइ, हुणइ, जिणइ, लुणइ, धुणइ ।' वस्तुत: यह संस्कृत के कयादिगणी (नवमगण) धातु का विकास है, जिसके रूप 'जिनाति, जिनीतः, जिनन्ति होंगे, और जो सं० में बहुत कम पाया जाता है । कोइ<कोपि । (क: + अपि) (हि० रा० कोई) । तुलुक 'तुर्क' विदेशी शब्द । हिंदू - यह फारसी शब्द है, जिसका संबंध 'सिंधु' से जोड़ा जाता है। फारसी में 'स', 'ह' तथा सघोष महाप्राण (घ) ध्वनि सघोष अल्पप्राण (द) हो जाती है । [ खंजा छंदः ] अ धरिअ दिअवर णव गण कमलणअणि, बुहअण मण सुहइ जु जिम ससि रअणि सोहए । पुण विअ विरइ बिहु पअ गअवरगमणि, रगण पर फणिवर भण सुमरु बुहअण मोहए ॥१५८ ॥ १५८. खंजा छंद: हे कमलनयने, हे गजवरगमने, जहाँ दोनों चरणों में नौ द्विजवर (सर्वलघु) गणों अर्थात् ३६ लघु को धरकर विराम हो, तथा फिर रगण (मध्यलघु गण) हो; फणिपति पिंगल कहते हैं कि यह छंद (खञ्जा) बुधजनों को वैसे ही सुशोभित होता है; जैसे रात्रि में चंद्र बुधजनों को मोहित करता है। हे प्रिये, तुम इसका स्मरण करो । ( यहाँ लक्षण में खञ्जा छंद का नाम नहीं दिया गया है। टीकाकारों ने 'खंजावृत्तमिति शेष:' लिखा है ।) खंजावृत्त=३६ लघु; रगण ( SIS ) = ३६ + ५ = ४१ मात्रा प्रति चरण । यह छंद भी द्विपदी है, अन्य छंदो की तरह चतुष्पाद नहीं । अतः कुल छंद में ४१x२=८२ मात्रा होंगी । टिप्पणी- धरिअ - < *धार्य (धृत्वा) पूर्वकालिक क्रिया रूप । सुहइ - शोभते, वस्तुतः यह 'सोहइ' का हस्वीकरण है । भण - < भणति, वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व० । सुमरु - स्मर, अनुज्ञा म० पु० ए० व०, प्राकृत में /स्मृ को / सुमर आदेश होता है । दे० 'स्मरतेर्भरसुमरौ' (प्रा० प्र० ८.१८) 'सुमरइ' । सोहए, मोहए - संभवत: इन्हें कुछ विद्वान् आत्मनेपदी रूप मानना चाहें, सोहए (<शोभते), मोहए (<* मोहयते । यद्यपि प्राकृत में किसी तरह आत्मनेपदी रूप कुछ बचे खुचे मिल जाते हैं, पर प्रा० पैं० की अवहट्ठ में इन रूपों को आत्मनेपदी मानना ठीक नहीं जँचता । मैं इन्हें परस्मैपदी रूप ही मानना चाहूँगा तथा इसका मूल रूप 'सोहइ', 'मोहइ' ही है । खंजा छंद की प्रत्येक अर्धाली में अन्त में रगण (SIS) आवश्यक है, अतः 'सोहइ', 'मोहइ' पाठ लेने पर अन्त लघु पड़ेगा, गुरु नहीं। इसीलिए 'इ' का दीर्घीकरण 'ए' के रूप में कर दिया गया है। कुछ लोग यह आपत्ति करें कि 'इ' का दीर्घीकरण 'ई' लेना चाहिए, किन्तु हम देखते हैं कि 'इ' तथा 'उ' के 'ई-ए', 'ऊ-ओ' दोनों तरह के दीर्घीकृत रूप देखे जाते हैं । इसी तरह 'ए' तथा 'ओ' के हस्वरूप 'ऐ-आ' के अतिरिक्त 'इ-उ' वाले भी पाये जाते हैं, दे० ऊपर 'सुहइ' (सोहइ) । अथवा इन्हें आत्मनेपदी ही मानकर प्राकृतीकृत (प्राकृताइज्ड ) रूप मानने पर भी किसी तरह समस्या सुलझ सकती है । यह सब छन्दोनिर्वाहार्थ हुआ है । बिहु दल व पल विप्पगण जोहल अंत ठवेहु । मत्त इआलिस खंज पअ दहगण तत्थ मुणेहु ॥१५९॥ १५८. दिअवर णव गण - B. दिअवरि°, C. चरण ठगण, O. 'उ' । बुहअणमण - A. बिबुहगण, B. बिबुह । जिम - B. N. जिमि, O. जेम । रगण - A. B. N. O. रण । फणिवइ - A. कणिवइ । मोहए - N. सोहरा । १५९. बिहु - B. विउ । णव• O. णउ । जोहल - A. जोहलु । इआलिस - A. एआलिस । तत्थ - O तरुणि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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