SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १.१५७] मात्रावृत्तम् [७५ को 'कृता' से अनूदित करता है। मेरी समझ में दोनों ही विधि रूप है। प्राकृत में विधि में मध्यम पु० ब० व०, प्रथम (अन्य) पुरुष ए० व० तथा ब० व० में-'एज्जा' रूप पाये जाते हैं। इसी से-'इज्जिआ' का विकास मजे से माना जाता है । प्राकृत विधि के-'एज्जा' वाले रूपों के लिए, देखिए पिशेल ६ ४६०, ६ ४६१ । इस संबंध में इतना संकेत कर दिया जाय कि अर्धमागधी में इसी के 'इज्जा' वाले रूप भी मिलते हैं :-उदाहरिज्जा (उदाहरेः) (सूयगडंगसुत्त), जो कुछ नहीं-'इज्जा' < एज्जा' के विकासक्रम का संकेत करते हैं । जाआ-< जाता; कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत रूप, स्त्रीलिंग । सततीस-< सप्तत्रिंशत् > सत्ततींस > सत्ततीस > सततीस । पल-पतंति; धातु रूप का वर्तमान काल प्र० पु० ब० व० में प्रयोग । कहु-< कथयति; धातु रूप के साथ कर्ता कारक ए० व० का 'उ' प्रत्यय । जहा, सहस मअमत्त गअ लाख लख पक्खरिअ, साहि दुइ साजि खेलंत गिंदू । कोप्पि पिअ जाहि तह थप्पि जसु विमल महि, जिणइ णहि कोइ तुह तुलुक हिंदू ॥१५७॥ १५७. उदाहरण : हजारों मदमत्त हाथियों और लाख लाख (घोड़ों) को पाखर के साथ सजाकर दोनों शाह गेंद खेलते हैं (अथवा कन्दुककीड़ा की तरह युद्धकीड़ा में रत हैं) । हे प्रिय, तुम क्रुद्ध होकर वहाँ जाओ, पृथ्वी में निर्मल यश को स्थापित करो। तुम्हें कोई भी तुर्क या हिंदू नहीं जीत सकेगा। टि०-सहस-< सहस्र; लाख < लक्ख < लक्ष । न० भा० आ० में म० भा० आ० के समीकृत संयुक्त व्यंजनों की पूर्ववर्ती व्यंजन ध्वनि का लोपकर उससे पूर्व के स्वर को दीर्घ बना देना खास विशेषता है। यह विशेषता पंजाबी तथा सिंधी को छोड़कर प्रायः सभी न० भा० आ० भाषाओं में पाई जाती है। तु० अद्य-< अज्ज > हि० आज (पंजाबी अज्ज) । कर्म < कम्म > हि० काम (पंजाबी कम्म) । लख-यह 'लाख' का छन्दोनिर्वाह के लिये विकृत रूप है जिसमें दीर्घ स्वर कोह्रस्व कर दिया गया है। पक्खस्-ि 'पक्खर' (हि. पाखर घोडों व हाथियों की झूल) से नाम धातु बनाकर उससे बनाया गया पूर्वकालिक क्रिया रूप है । संस्कृत टीकाकार-'वारवाणेनावगुंठ्य' =*प्रक्षरीकृत्य । साहि-कुछ संस्कृत टीकाकारों ने इसे 'स्वामिद्वयं (साहि दुइ) अनूदित किया है, कुछ ने 'सार्वभौमद्वयं' से । यह वस्तुतः फारसी का 'शाह' शब्द है। सजि-णिजंत क्रिया से पूर्वकालिक क्रिया रूप (=सजाकर) । (Vसज+णिच्=Vसाज+इ=साजि) । खेलंत-वर्तमानकालिक कृदंत रूप; कर्ता ब० व० । गिदूर कंदुकं > गेंदुअं > गेंदू > गिंदू, कर्म कारक ए० व० (हि० गेंद) । काप्पि<*कुप्य-पूर्वकालिक क्रिया रूप (कोपिअ के 'अ' का लोप तथा 'प' का द्वित्व कर यह रूप बना है)। जाहिरयाहि, अनुज्ञा म० पु० ए० व० रूप । (Vजा (सं० या)+हि)। थप्पि स्थापय, अनुज्ञा म० पु० ए० व० रूप । कुछ टीकाकारों ने इसे पूर्वकालिक रूप भी माना है, जो भी ठीक जान पड़ता है-थप्पि<*स्थाप्य (स्थापयित्वा) । जिणइ < जयति; टीकाकारों ने इसे भविष्यत्कालीन 'जेष्यति' से अनूदित किया है, जो 'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा' का प्रभाव है। वस्तुतः यह वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व० का ही रूप है, भविष्यत् का नहीं । प्रा० भा० आ० /जि का प्राकृत में /जिण रूप देखा जाता है। इसका संकेत वररुचि के प्राकृतप्रकाश १५७. लाख लख-N. लक्ख लख । गिंदू-K. गिहू । काप्पि-A. कोप्पी । तह-K. तहि । थप्पि-A. थप्पु । जिणइ-B. हिणइ । कोइ-A. कोवि । ०. न प्राप्येते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy