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________________ भूमिका ७१ की धातुएँ बर्तन बनाने के काम में आती थीं । इसके अतिरिक्त वैदूर्य, स्फटिक, मसारकल्ल, लोहिताक्ष, अंजनपुलक, गोमेद, सासक (पन्ना), सिलप्पवाल, प्रवाल, वज्र, मरकत और अनेक प्रकार की खारमणि इनसे कीमती बर्तन बनाये जाते थे । कृष्ण मृत्तिका, वर्ण मृत्तिका, संगमृत्तिका, विषाणमृत्तिका, पांडुमृत्तिका, ताम्रभूमि मृत्तिका (हिरमिजी) मुरुम्ब (मोरम) इत्यादि कई प्रकार की मिट्टियाँ बर्तन बनाने और रंगने के काम में आती थीं। इस प्रकार मृत्तिकामय, लोहमय, मणिमय, शैलमय कई प्रकार के भाजन बनते थे । वस्तुत: इस अध्याय में दैनिक जीवन से सम्बन्ध रखनेवाली मूल्यवान् सामग्री का संनिवेश पाया जाता है (पृ. २२३-२३४) । ५९ वें अध्याय का नाम काल अध्याय है जिसमें २७ पटल हैं। पहले पटल में काल विभाग के नाम हैं । दूसरे में गुणों का विवेचन है। तीसरे पटल में उत्पात और चौथे में काल के सूक्ष्म विभागों का उल्लेख है। पांचवें पटल से २७ वें पटल तक जीव-अजीव पदार्थों और प्राणियों का काल के साथ सम्बन्ध कहा गया है । बारहवाँ पटल महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें छह ऋतु और बारह महीनों के क्रम से प्रकृति में होनेवाले वृक्ष, वनस्पति, पुष्प, सस्य, ऋतु आदि के परिवर्तन गिनाये गये हैं। उदाहरण के लिये फाल्गुन महीने के सम्बन्ध में कहा है-फाल्गुन मास में नरनारिओं के मिथुन मिलकर उत्सव मनाते हैं और मुदित होते हैं । उस समय शीत हट जाता है और कुछ उष्ण भाव आ जाता है। जिस समय आम्रमंजरी निकलती और कोयल शब्द करती है उस समय गाने बजाने और हँसी खुशी के साथ स्त्रीपुरुष आपानक प्रमोद में मस्त होते हैं । जपा, इन्दीवर, श्यामाक के पुष्पों से आंदोलित ऋतु का नाम वसंत है, जिसमें मनुष्य मस्त होकर नाचने लगते हैं, घूमने लगते हैं । स्त्री पुरुषों के मिथुन मैथुन कथाप्रसंगों में लगे हुए नाना भांति से अपना मंडन करते हैं उसका नाम फाल्गुन मास है । इन ४२ श्लोकों को अपने साहित्य का सबसे प्राचीन बारामासा कहा जा सकता है (पृ० २४३-४४) । सत्रहवें पटल में प्रात:काल से लेकर संध्याकाल तक के भिन्न भिन्न व्यवहार बताये गये हैं। जिसमें प्रातराश, मध्याह्नभोजन, उद्यानभोजन आदि हैं । बीसवें पटल में रामायण, भारत और पुराणों की कथाओं का भी उल्लेख है। साठवें अध्याय में पूर्वभव अर्थात् देवभव, मनुष्यभव, तिर्यक् भव और नैरयिकभव के जानने की युक्ति बताई गई है। इसी के उत्तरार्ध में आगामी भव जानने की युक्ति का विचार है। इस प्रकार यह अंगविज्जा नामक प्राचीन शास्त्र सांस्कृतिक दृष्टि से अतिमहत्त्वपूर्ण सामग्री से परिपूर्ण है । निःसन्देह इसकी शब्दावली अनेक स्थलों में अस्पष्ट और गूढ़ है । इस ग्रन्थ की कोई भी प्राचीन या टीका उपलब्ध नहीं है। प्राकृत कोष भी इन शब्दों के विषय में सहायता नहीं करते । वस्तुत: तो स्वयं अंगविज्जा के आधार पर वर्तमान प्राकृत कोषों में अनेक नये शब्दों को जोड़ने की आवश्यकता है। इस ग्रंथ पर विशेष रूप से स्वतंत्र अर्थ अनुसंधान की आवश्यकता है। तुलनात्मक सामग्री के आधार पर एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण से यह संभव हो सकेगा कि इसकी शब्दावली एवं वस्त्र, भाजन, आभूषण, शयनासन, गृहवस्तु, फल, मूल, पुष्प, वृक्ष, यान, वाहन, पशुपक्षी, धातु, रत्न, देवी-देवता, पर्व, उत्सव, व्यवहार आदि से संबंधित जो मूल्यवान् शब्दसूचियाँ इस ग्रन्थ में सुरक्षित रह गई हैं, उनकी यथार्थ व्याख्या की जा सके । आशा है कि इस ग्रन्थ के प्रकाशन के बाद सांस्कृतिक इतिहास के विद्वान् लेखक इस सामग्री का समुचित उपयोग कर सकेंगे । यहाँ हमने कुछ शब्दों पर विचार किया है, बहुत से अभी अस्पष्ट रह गये हैं। फिर भी जहाँ तक संभव हो सका है, सांस्कृतिक अर्थों की दृष्टि से अंगविद्या के अध्ययन को आगे बढ़ाने का कुछ प्रयत्न यहाँ किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001439
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size12 MB
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