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अंगविज्जापइणयं
पुष्प, फल, लता, धान्य, तैल, वस्त्र, धातु, वर्ण, आभरण आदि की विस्तृत सूचियां दी गई हैं जिनसे तत्कालीन संस्कृति के विषय में उपयोगी सूचना प्राप्त होती है । जलचर जीवों में कुछ ऐसे नाम हैं जिनका अंकन मथुरा की जैन कला में विशेष रूप से पाया जाता है । इन्हें सामुद्रिक अभिप्राय (Marine Motifs) कहा जाता है; जैसे हत्थिमच्छा (हाथी का शरीर और मछली की पूछ मिली हुई, जिसे जलेभ या जलहस्ति भी कहा जाता है), मगमच्छ (मृगमत्स्य), गोमच्छ ( गौमत्स्य), अस्समच्छ ( आधी अश्व की आधी मत्स्य की), नरमत्स्य ( पूर्वकाय मनुष्य का और अधः काय मत्स्य का, अं० Triton | मछलियों की सूची में कुछ नाम विशेष ध्यान देने योग्य हैं । जैसे सकुचिका (सकची माछ), चम्मिरा (चर्मज, मानसोल्लास), घोहणु, वइरमच्छ (वज्रमच्छ), तिमितिमिगिल, वालीण, सुंसुमार, कच्छभमगर, गद्दभकप्पमाण ( Shark ), रोहित, पिचक (पिच्छक, मानसोल्लास ), णलमीन ( नलमीन, eel), चम्मिराज, कल्लाडक, सीकुंडी, उप्पातिक, इंचका, कुडुकालक, सित्तमच्छक ( पृ० २२८) ।
वृक्षों की सूची में चार प्रकार के वृक्ष कहे गये हैं- पुष्पशाली, पुष्पफलशाली, फलशाली, न पुष्पशाली न फलशाली । पुष्पशाली तीन प्रकार के हैं-प्रत्येकपुष्प, गुलुकपुष्प, मंजरी । एक एक फल अलग लगे तो प्रत्येक पुष्प, फूलों के गुच्छे हों तो गुलुकपुष्प और पुष्पों के लम्बे लम्बे झुग्गे लगें तो मंजरी कही जाती है । रंगों की दृष्टि से पुष्पों के पांच प्रकार हैं-श्वेत, रक्त, पीत, नील और कृष्ण पुष्प । गंध की दृष्टि से पुष्पों के तीन प्रकार हैं-सुगंध पुष्प, दुर्गन्ध पुष्प, अत्यंत गंध पुष्प । फलदार वृक्ष फलों के परिमाण की दृष्टि से चार वर्गों में बांटे गये हैं- बहुत बड़े फल वाले (कायवंत फल जैसे कटहल, तुम्बी, कुष्मांड, मज्झिमकाय ( मझले आकार के फल वाले), कैथ, बेल; बिचले (मज्झिमाणांतर) फल वाले जैसे आम, उदुम्बर; और छोटे फल वाले जैसे बड, पीपल, पीलू, चीरोजी, फालसा, बेर, करौंदा । वर्गीकरण की क्षमता का और विकास करते हुए कहा गया है कि भक्ष्य और अभक्ष्य दो प्रकार के फल होते हैं । पुनः वे तीन प्रकार के हैं-सुगंध, दुर्गंध और अत्यन्त सुगंध । रस या स्वाद की दृष्टि से फलों के पांच प्रकार और हैं-तीते, कडुवे खट्टे, कसैले और मीठे । अशोक, सप्तवर्ण, तिलक-ये पुष्पशाली वृक्षों के उदाहरण हैं । आम, नीम, बकुल, जामुन, दाडिम- ये ऐसे वृक्ष हैं जो पुष्प और फल दोनों दृष्टिओं से सुन्दर हैं। गंध की दृष्टि से वृक्षों के कई भेद हैं-जैसे मूलगंध (जिनकी जड़ में सुगंध हो), स्कंधगत गंध, त्वचागत गंध, सारगत गंध (जिसके गूदे में गन्ध हो), निर्यासगत गंध (जिसके गोंद में सुगंध हो), पत्रगत गंध, फलगत गंध, पुष्पगत गंध, रसगत गंध । रसों में कुछ विशेष नाम उल्लेखयोग्य हैं- गुग्गुल विगत (गुग्गुल से बनाई गई कोई विकृति), सज्जलस (सर्ज वृक्ष का रस ), इक्कास (संभवत: नीलोत्पल कमल से बनाया हुआ द्रव; देशीनाममाला १–७९ के अनुसार इक्कस नीलोत्पल या कमल), सिरिवेटूक (श्रीवेष्टकदेवदार वृक्ष का निर्यास), चंदन रस, तेलवण्णिकरस (तैलपर्णिक लोबान अथवा चंदन का रस), कालेयकरस (इस नाम के चन्दन का रस), सहकार रस ( इसका उल्लेख बाण ने भी हर्षचरित में किया है), मातुलुंग रस, करमंद रस, सालफल रस । उस समय भाँति-भाँति के तैल भी तैयार होते थे जिनकी एक सूची दी हुई है - जैसे कुसुंभ तेल्ल, अतसी तेल्ल, रुचिका तेल्ल (= एरंड तैल), करंज तेल्ल, उण्हिपुण्णामतेल्ल (पुन्नाग के साथ उबाला हुआ तैल), बिल्ल तेल्ल (बिल्व तैल), उसणी तेल्ल ( उसणी नामक किसी ओषधि का तेल ), वल्ली तेल्ल, सासव तेल्ल (सरसों का तेल), पूतिकरंज तेल्ल, सिग्गुक तेल्ल (सोहजन का तेल), कपित्थ तेल्ल, तुरुक्क तेल्ल (तुरुष्क नामक सुगंधी विशेष), मूलक तेल्ल, अतिमुक्तक तैल । नाना प्रकार के तेल वृक्ष, गुल्म, वल्ली, गुच्छ, वलय (झुग्गे) और फल आदि से बनाये जाते थे । घटिया बढ़िया तेलों की दृष्टि से उनका वर्गीकरण भी बताया गया है। तिल, अतसी, सरसों, कुसुंभ के तैल प्रत्यवर या नीची श्रेणी के रेड-एरंड, इंगुदी, सोंहजन के मज्झिमाणंतर वर्ग के; मोतिया और पकली (बेला) के तैल मध्यम वर्ग के, और कुछ दूसरे तैल श्रेष्ठ जाति के होते हैं । चंपा और चांदनी (चंदणिका) के फूलों (पुस्स = पुष्प) से जाही और जूही के तेल भी बनाये जाते थे । अनेक प्रकार के कुछ अन्नों के नाम भी गिनाये गये हैं ( पृ० २३२, पं० २७) । वस्त्र, भाजन, आभरण और धातुओं के नाम भी गिनाये हैं । सुवर्ण, त्रपु ताँबा, सीसक, काललोह, वट्टलोह, कंसलोह, हारकूट ( आरकूट), चाँदी ये कई प्रकार
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