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________________ अंगविज्जापइण्णयं इसके बाद कार्षापण और णाणक इन दोनों के निधान की संख्या का कथन एक से लेकर हजार तक किन लक्षणों के आधार पर किया जाना चाहिए यह भी बताया गया है । यदि प्रश्नकर्ता यह जानना चाहे कि गड़ा हुआ धन किसमें बँधा हुआ मिलेगा तो भिन्न भिन्न अंगों के लक्षणों से उत्तर देना चाहिए - थैली में (थविका), चमड़े की थैली में (चम्मकोस), कपड़े की पोटली में (पोट्टलिकागत) अथवा अट्टियगत (अंटी की तरह वस्त्र में लपेटकर) सुत्तबद्ध, चक्कबद्ध, हेत्तिबद्ध - पिछले तीन शब्द विभिन्न बन्धनों के प्रकार थे जिनका भेद अभी स्पष्ट नहीं है । कितना सुवर्ण मिलने की संभावना है इसके उत्तर में पाँच प्रकार की सोने की तौल कही गई है, अर्थात् एक सुवर्णभर, अष्ट भाग सुवर्ण, सुवर्णमासक (सुवर्ण का सोलहवाँ भाग), सुवर्ण काकिणि (सुवर्ण का बत्तीसवाँ भाग) और पल ( चार कर्ष के बराबर ) । ६८ अध्याय ५७ का नाम णट्ठकोसय अध्याय है जिसमें कोश के नष्ट होने के संबंध में विचार किया गया है । नष्ट के तीन भेद हैं- नष्ट, प्रमृष्ट, ( जबरदस्ती छीन लिया गया) और हारित ( जो चोरी हुआ हो) । पुनः नष्ट के दो भेद किये गये हैं-सजीव और अजीव । सजीव नष्ट दो प्रकार के हैं- मनुष्य योनिगत और तिर्यक् योनिगत । तिर्यक् योनि के भी तीन भेद हैं-पक्षी, चतुष्पद और सरिसर्प । सरिसर्पों में दव्वीकर, मंडलि और राजिल (राइण्ण) नामक सर्पों का उल्लेख किया गया है । मनुष्य वर्ग में प्रेष्य, आर्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि का उल्लेख है । इनमें भी छोटे-बड़े अनेक भेद होते थे । संबंध की दृष्टि से भ्राता, वयस्य, भगिनी, श्याल, पति, देवर, ज्येष्ठ, मातुलपुत्र, भगिनीपति, भ्रातृव्य, भ्रातृश्वसा, पितृश्वसा आदि के नाम हैं। अजीव पदार्थों की सूची में प्राणयोनि के अन्तर्गत दूध, दही, तक, कूचिय ( कूर्चिक रबड़ी), आमधित ( = आमथित = मट्ठा या दूध में मथी हुई कोई वस्तु), गुड़दधि, रसालादधि, मंथु (सं० मंथ), परमण्ण (परमान्न, खीर), दधिताव (छोंकी हुई दही या कढी), तक्कोदण (तक्रौदन), अतिकूरक (विशेष प्रकार का भात, पुलाव) इत्यादि । मूलयोनिगत आहार की सूची में शालि, व्रीहि, कोद्रव, कंगू, रालक (एक प्रकार की कंगनी), वरक, जौ, गेहूँ, मास, मूँग, अलसंदक (धान्य विशेष), चना, णिप्फावा (गुज० वाल, सेम का बीज), कुलत्था (कुलथी), चणविका (= चणकिका चने से मिलता हुआ अन्न, प्राकृत चणइया, ठाणांग सूत्र ५, ३), मसूर, तिल, अलसी, कुसुम्भ, सावां । इस प्रकरण में कुछ प्राचीन मद्यों के नाम भी गिनाये हैं । जैसे पसण्णा (सं० प्रसन्ना नामक चावल से बना मद्य, काशिका ५.४.१४, संभवत: श्वेत सुरा या अवदातिका), णिट्ठिता (= निष्ठिता, मद्यविशेष मंहगी शराब, संभवतः द्राक्षा से बनी हुई), मधुकर (महुवे की शराब) आसव, जंगल ( ईख की मदिरा), मधुरमेरक (मधुरसेरक पाठान्तर अशुद्ध है । वस्तुतः यह वही है जिसे संस्कृत में मधुमैरेय कहा गया है, काशिका ६.२.७०), अरिट्ठ, अकालिक (इसका शुद्ध पाठ अरिट्ठकालिका था जैसा कुछ प्रतियों में है, कालिका एक प्रकार की सुरा होती है, काशिका ५.४.३, अर्थशास्त्र २२५, आसवासव (पुराना आसव), सुरा, कुसुकुंडी (एक प्रकार की श्वेत मधुर सुरा), जयकालिका । धातु के बने आभरणों में सुवर्ण, रुप्प, तांबा, हारकूट, त्रपु ( रांगा) सीसा, काललोह, वट्टलोह, सेल, मत्तिका का उल्लेख है । धातुनिर्मित वस्त्रों में सुवर्णपट्ट (किमखाब) सुवर्णखचित (जरी का काम ) और लौहजालिका (पृ० २२१) —ये हैं । इसी प्रसंग में तीन सूचियाँ रोचक हैं-घर, नगर और नगर के बाहर के भाग के विभिन्न स्थानों की । घर के भीतर अरंजर, ऊष्ट्रिका, पल्ल (सं० पल्य, धान्य भरने का बड़ा कोठा), कुड्य, किज्जर, ओखली, घट, खड्डभाजन (खोदकर गड़ा हुआ पात्र), पेलिता ( पेलिका संभवतः पेटिका), माल ( घर का ऊपरी तल), वातपाण ( गवाक्ष), चर्मकोष ( चमड़े का थैला), बिल, नाली, थंभ, अंतरिया ( अंत के कोने में बनी हुई कोठी या भंडरिया), पस्संतरिया (पार्श्वभाग में बनी हुई भंडरिया), कोट्ठागार, भत्तघर, वासघर, अरस्स (आदर्श भवन या सीसमहल), पडिकम्मघर (शृंगारगृह ) असोयवणिया (अशोकवनिका नामक गृहोद्यान), आवुपध, पणाली, उदकचार, वच्चाडक (वर्चस्थान), अरिट्ठगहण (कोपगृह जैसा स्थान ), चित्तगिह (चित्रगृह), सिरिगिह (श्री गृह), अग्निहोत्रगृह, स्नानगृह, पुस्सघर, दासीघर, वेसण | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001439
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size12 MB
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