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अंगविज्जापइण्णयं
३९ वें अध्याय की संज्ञा कण्णावासण है । इसमें कन्या के विवाह एवं उसके जन्म के फलाफल एवं कर्मगति का विचार है कि वह अच्छी होगी या दुष्ट होगी ( पृ० १७५–६) ।
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भोजन नामक चालीसवें अध्याय में आहार के सम्बन्ध में विस्तृत विचार किया गया है। आहार तीन प्रकार का होता है- प्राणयोनि, मूलयोनि, धातुयोनि । प्राणयोनि के अन्तर्गत दूध, दही, मक्खन, तक, घृत, मधु आदि है । उसके भी संस्कृत, असंस्कृत, आग्नेय, अनाग्नेय भेद किये गये हैं । कंद, मूल, फल, फूल, पत्र आदि से भी आहार उपलब्ध होता है। कितने ही धान्यों के नाम गिनाये गये हैं । उत्सवों के समय भोज किये जाते थे । उपनयन, यज्ञ, मृतक, अध्ययन के आदि, अन्त एवं गोष्ठी आदि के समय भोजों का प्रबन्ध होता था। भोजन अपने स्थान पर या मित्र आदि के स्थान पर किया जाता था । इक्षुरस, फलरस, धान्यरस आदि पानों का उल्लेख है । यवा, प्रसन्ना, अरिष्ट, श्वेतसुरा ये मद्य थे । यवागू, दूध, घृत, तैल आदि से बनाई जाती थी । गुड़ और शक्कर के भेदों में शर्करा, मच्छंडिका, खज्जगगुल (खाद्यक गुड़) और इक्कास का उल्लेख है । समुद्र, सैन्धव, सौवर्चल, पांसुखार, यवाखार आदि नमक के भेद किये गये हैं। मिठाईयों में मोदक, पिंडिक, पप्पड, मोरेंडक, सालाकालिक, अम्बट्ठिक, पोवलिक, वोक्कितक्क, पोवलक, सक्कुलिका, पूष, फेणक, अक्खपूप, अपडिहत, पवितल्लक (पोतलग), वेलातिक, पत्तभज्जित, सिद्धत्थिका, बीयक, उक्कारिका, मंदिल्लिका, दीह सक्कुलिका, खारवट्टिका, खोडक, दीवालिक (दीवले) दसीरिका, मिसकण्टक, महन्थतक, आदि तरह तरह की मिठाइयाँ और खाद्यपदार्थ होते थे । अम्बट्टिक (अमचुर या आम से बनी हुई मिठाई हो सकती है जिसे अवधी में गुलम्बा कहते हैं) । पोवालिक पौली नाम की मीठी रोटी और मुरण्डक, छेने का बना हुआ मुरंडा या तिलके लड्डू होने चाहिएँ । फेणक फेणी के रूप में आज भी प्रसिद्ध है ।
४१ वाँ वरियगंडिका अध्याय है । इसमें मूर्तियों के प्रकार, आभरण और अनेक प्रकार की रत - सुरत की क्रीडाओं के नामों का संग्रह है। सुरत क्रीडाओं के तीन प्रकार कहे गये हैं-दिव्य, तिर्यक् योनि और मानुषी । दिव्य क्रीडाओं में छत्र, भृंगार, जक्खोपयाण (संभवतः यक्षकर्दम नामक सुगंध) की भेंट का प्रयोग होता है । मानुषी क्रीडा में वस्त्र, आभूषण, यान, उपानह, माल्य, मुकुट, कंघी, स्नान, विशेषक, गन्ध, अनुलेपन, चूर्ण, भोजन, मुखवासक आदि का प्रयोग किया जाता है ( पृ० १८२-६) ।
४२ वें अध्याय (स्वप्नाध्याय) में दिट्ठ, अदिट्ठ और अवत्तदिट्ठ नामक स्वप्नों का वर्णन है । ये शुभ और अशुभ प्रकार के होते हैं । स्वप्नों के और भी भेद किये गये हैं- जैसे श्रुत जिसमें मेघगर्जन, आभूषणों का या सुवर्णमुद्राओं का शब्द या गीत आदि सुनाई पड़ते हैं । गंधस्वप्नों में सुगन्धित पदार्थ का अनुभव होता है । ऐसे ही कुछ स्वप्नों में स्पर्शसुख, सुरत, जलचर, देव, पशु, पक्षी आदि का अनुभव होता है । अ सगे सम्बन्धी भी स्वप्नों में दिखाई पड़ते हैं जो कि मानुषी स्वप्न कहलाते हैं । स्वप्नों में देव और देवियाँ भी दिखाई पड़ती हैं ( पृ० १८६ - १९१) । ४३ वें अध्याय में प्रवास या यात्रा का विचार है । यात्रा में उपानह, छत्र, तप्पण (सत्तू ), कत्तरिया (छुरी), कुंडिका, ओखली आवश्यक हैं । यात्री मार्ग में प्रपा, नदी, पर्वत, तडाग, ग्राम, नगर, जनपद, पट्टन, सन्निवेश आदि में होता हुआ जाता था । विविध रूप-रस- गन्ध-स्पर्श के आधार पर यात्रा को शुभाशुभ कहा जाता था । उससे लाभ, अलाभ, जीवन, मरण, सुख-दुःख, सुकाल, दुष्काल, भय, अभय आदि फल उपलब्ध होते हैं ( पृ० १९१-१९२) ।
४४ वें अध्याय में प्रवास के उचित समय, दिशा, अवधि और गन्तव्य स्थान आदि के सम्बन्ध में विचार है ( पृ० १९२ – ९३) ।
४५ र्वे प्रवेशाध्याय नामक प्रकरण में प्रवासी यात्री के घर लौटने का विचार है । भुक्त, पीत, खड़त, लीढ, कर्णतैल, अभ्यंग, हरिताल, हिंगुल, मैनसिल, अंजन, समालभणक ( = विलेपन), अलत्तक, कलंजक, वण्णक,
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