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________________ भूमिका की सूची अधिक महत्त्वपूर्ण है। उनके नाम ये हैं-नाव, पोत, कोट्टिम्ब, सालिक, तप्पक, प्लव, पिण्डिका, कंडे, वेलु, तुम्ब, कुम्भ, दति (दृति) । इनमें नाव और पोत महावकाश अर्थात् बड़े परिमाणवाले जहाज थे जिनमें बहुत आदमियों के लिये अवकाश होता था । कोट्टिम्ब, सालिक, संघाड, प्लव और तप्पक मझले आकार की नावें थीं। उससे छोटे कट्ठ (कंड) और वेलू होते थे। और उनसे भी छोटे तुम्ब, कुम्भ और दति कहलाते थे। जैसा श्री मोतीचन्दजी ने अंग्रेजी भूमिका में लिखा है पेरिप्लस के अनुसार भरुकच्छ के बन्दरगाह में त्रप्पग और कोटिम्ब नामक बड़े जहाज सौराष्ट्र तक की यात्रा करते थे । यही अंगविज्जा के कोट्टिब और तप्पग हैं । पूर्वी समुद्र तट के जलयानों का उल्लेख करते हुए पेरिप्लस ने संगर नामक जहाजों का नामोल्लेख किया है जो कि बड़े-बड़े लट्ठों को जोड़कर बनाये जाते थे। येही अंगविज्जा के संघाड (सं० संघाट) हैं । वेलू बाँसों का बजरा होना चाहिए । कांड और प्लव भी लकड़ी या लट्ठों को जोड़कर बनाये हुए बजरे थे । तुम्बी और कुम्भ की सहायता से भी नदी पार करते थे। इनमें दति या दृति का उल्लेख बहुत रोचक है। इसे ही अष्टाध्यायी में भस्त्रा कहा गया है। भेड़-बकरी या गाय-भैंस की हवा से फुलाई हुई खालों को भस्त्रा कहा जाता था और इस कारण भस्त्रा या दृति उस बजड़े या तमेड़ के लिये भी प्रयुक्त होने लगा जो इस प्रकार की खालों को एक दूसरे में बाँधकर बनाये जाते थे। इन फुलाई हुई खालों के ऊपर बाँस बाँधकर या मछुओं का जाल फैलाकर यात्री उन्हीं पर बैठकर लगभग आठ मील की घंटे की रफ्तार से मजे में यात्रा कर लेते हैं । इस प्रकार के बजरे बहुत ही सुविधाजनक रहते हैं। ठिकाने पर पहुँचकर मल्लाह खालों को पटकाकर कन्धे पर डाल लेता है और पैदल चलकर नदी के ऊपरी किनारे पर लौट आता है। भारत, ईरान, अफगानिस्तान और तिब्बत की नदियों में भस्त्रा या दृति का प्रयोग पाणिनि और दारा के समय से चला आया है। ईरान में इन्हें मश्का कहते थे । शालिका संभवतः उस प्रकार की नाव थी जिसमें शाला या बैठने उठने के लिये मंदिर (केबिन) पाटातान के ऊपर बना हो । पिंडिका वह गोल नाव थी जो बेतों की टोकरी को चमड़े से मढ़कर बनाई जाती थी (पृ० १६५-६) । ३४ वें संलाप नामक अध्याय में बातचीत का अंगविज्जा की दृष्टि से विचार किया है जिसमें स्थान, समय एवं बातचीत करनेवाले की दृष्टि से फलाफल का विचार है। ३५ वें अध्याय का नाम पयाविसुद्धि (प्रजाविशुद्धि) है। इसमें प्रजा या संतान के सम्बन्ध में शुभाशुभ का विचार किया गया है। छोटे बच्चे के लिये वच्छक और पुत्तक की तरह पिल्लक शब्द भी प्रयुक्त होने लगा था जो कि दक्षिणी भाषाओं से लिया हुआ शब्द ज्ञात होता है । ३६ वें अध्याय में दोहल (दोहद) के विषय में विचार किया गया है । दोहद अनेक प्रकार का हो सकता है। विशेष रूप से उसके पाँच भेद किये गये हैं-शब्दगत, गन्धगत, रूपगत, रसगत, स्पर्शगत । रूपगत दोहद के कई भेद हैं, जैसे पुष्प, नदी, समुद्र, तडाग, वापी, पुष्करिणी, अरण्य, भूमि, नगर, स्कन्धावार, युद्ध, क्रीडा, मनुष्य, चतुष्पाद, पक्षी आदि के देखने की इच्छा होती तो उसे रूपगत दोहद कहेंगे । गन्धगत दोहद के अन्तर्गत स्नान, अनुलेपन, अधिवास, स्नान चूर्ण, धूप, माल्य, पुष्प, फल आदि के दर्शन या प्राप्ति की इच्छा समझनी चाहिए । रसगत दोहद में पान, भोजन, खाद्य, लेह्य; और स्पर्शगत दोहद में आसन, शयन, वाहन, वस्त्र आभरण आदि का दर्शन और प्राप्ति समझी जाती थी । ३७ वें अध्याय की संज्ञा लक्षण अध्याय है। लक्षण बारह प्रकार के कहे गये हैं-वर्ण, स्वर, गति, संस्थान, संघयण (निर्माण), मान या लंबाई, उम्माण (तोल), सत्त्व, आणुक (मुखाकृति), पगति (प्रकृति), छाया, सारइन बारहों भेदों की व्याख्या की गई है, जैसे वर्ण के अन्तर्गत ये नाम हैं-अंजन, हरिताल, मैनसिल, हिंगुण, चाँदी, सोना, मूंगा, शंख, मणि, हीरा, शुक्ति (मोती), अगुरु, चन्दन, शयनासन, यान, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह, तारा, उल्का, विद्युत्, मेघ, अग्नि, जल, कमल, पुष्प, फल, प्रवाल, पत्र, मंड, तेल, सुरा, प्रसन्ना, पद्म, उत्पल, पुंडरीक, चम्पक, माल्याभरण आदि । फिर इनमें से प्रत्येक लक्षण का भी शुभाशुभ फल कहा गया है (पृ० १७३–४) ।। ३८ वें अध्याय में शरीर के व्यंजन या तिल, मसा जैसे चिन्हों के आधार पर शुभाशुभ का कथन है । Jain Education International For Private &Personal use Only www.jainelibrary.org
SR No.001439
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size12 MB
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