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अंगविज्जापइण्णयं पुच्छलक (संभवत: वह हार जिसे गोपुच्छ या गोरतन कहा जाता है, देखिये अमरकोष-क्षीरस्वामी), आवलिका (संभवत: इसे एकावली भी कहते थे), मणिसोमाणक (विमानाकृति मनकों का बना हुआ ग्रैवेयक । सोमाणक पारिभाषिक शब्द था । लोकपुरुष के ग्रीवा भाग में तीन-तीन विमानों की तीन पंक्तियाँ होती हैं जिनमें से एक विमान सोमणस कहलाता हैं), अठ्ठमंगलक (अष्ट मांगलिक चिह्नों की आकृति के टिकरों की बनी हुई माला जिसका उल्लेख हर्षचरित एवं महाव्युत्पत्ति में आया है । इस प्रकार की माला संकट से रक्षा के लिए विशेष प्रभावशाली मानी जाती थी), पेचुका (पाठान्तर पेसुका, संभवत: वह कंठाभूषण जो पेशियों या टिकरों का बना हुआ हो), वायुमुत्ता (विशेष प्रकार के मोतियों की माला), वुप्प सुत्त (संभवतः ऐसा सूत्र जिसमें शेखर हो; वुप्प = शेखर), कट्ठवट्टक (अज्ञात) | भुजाओं में अंगद और तुडिय (= टड्डे) | हाथों में हस्तकटक, कटक, रुचक (निष्क), सूची, अंगुलियों में अंगुलेयक, मुद्देयक, वेंटक, (गुजराती वीटी = अंगूठी) ।
कटी में कांचीकलाप, मेखला और जंघा में गंडूपदक (गेंडोए की भांति का पैर का आभूषण), नूपुर, परिहेरक (= पारिहार्यक-पैरों के कड़े (और पैरों में खिखिणिक (किंकिणी-धूंघरू), खत्तियधम्मक (संभवत: वह आभूषण विशेष जिसे आजकल गूजरी कहते हैं), पादमुद्रिका, पादोपक । इस प्रकार अंगविज्जा में आभूषणों की सामग्री बहुत से नये नामों से हमारा परिचय कराती है और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्व की है (पृ० १६२-३) ।
वत्थजोणी नामक एकत्तीसवें अध्याय में वस्त्रों का वर्णन है । प्राणियों से प्राप्त सामग्री के अनुसार वस्त्र तीन प्रकार के होते हैं-कौशेय या रेशमी, पतुज्ज, पाठान्तर पउण्ण = पत्रोर्ण और आविक । आविक को चतुष्पद पशुओं से प्राप्त अर्थात् अविके बालों का बना हुआ कहा गया है, और कौशेय या पत्रोर्ण को कीड़ों से प्राप्त सामग्री के आधार पर बना हुआ बताया गया है । इसके अतिरिक्त क्षौम, दुकूल, चीनपट्ट, कासिक-ये भी वस्त्रों के भेद थे । धातुओं से बने वस्त्रों में लोहजालिका-लोहे की कड़ियों से बना हुआ कवच जिसे अंगरी कहा जाता है, सुवर्णपट्ट-सुनहले तारों से बना हुआ वस्त्र, सुवर्णखसित-सुनहले तारों से खचित या जरीके काम का वस्त्र । और भी वस्त्रों के कई भेद कहे गये हैं जैसे परग्घ-बहुत मूल्य का, जुत्तग्घ-बीच के मूल्य का, समग्घ-सस्ते मूल्य का, स्थूल, अणुक या महीन, दीर्घ, हस्व, प्रावारक-ओढ़ने का दुशाला जैसे वस्त्र, कोतवरोएंदार कम्बल जिसे कोचव भी कहते थे और जो संभवतः कूचा या मध्य एशिया से आता था, उण्णिक (ऊनी), अत्थरक-आस्तरक या बिछाने का वस्त्र महीन रोंएदार (तणुलोम), हस्सलोम, वधूवस्त्र, मृतक वस्त्र, आतवितक (अपने और पराये काम में आनेवाला), परक (पराया), निक्खित्त (फेंका हुआ) अपहित (चुराया हुआ), याचितक (माँगा हुआ) इत्यादि ।
रंगों की दृष्टि से श्वेत, कालक, रक्त, पीत, सेवालक (सेवाल के रंग का हरा), मयूरग्रीव (नीला), करेणूयक (श्वेत-कृष्ण), पयुमरत्त, (पद्मरक्त अर्थात् श्वेतरक्त), मैनसिल के रंग का (रक्तपीत्त), मेचक (ताम्रकृष्ण) एवं उत्तम मध्यम रंगोंवाले अनेक प्रकार के वस्त्र होते थे । जातिपट्ट नामक वस्त्र भी होता था । मुख के ऊपर जाली (मुहोपकरणे उद्धंभागेसु य जालक) भी डालते थे । उत्तरीय और अन्तरीय वस्त्र शरीर के ऊर्ध्व
और अध: भाग में पहने जाते थे । बिछाने की दरी पच्चत्थरण और वितान या चंदोवा विताणक कहलाता था (पृ० १६३-४) ।
३२ वें अध्याय की संज्ञा धण्णजोणी (धान्ययोनि) है। इस प्रकरण में शालि, व्रीहि, कोदों, रालक (धान्य विशेष, एक प्रकार की कंगु), तिल, मूंग, उड़द, चने, कुल्थी, गेहूँ आदि धान्यों के नाम गिनाये हैं। और स्निग्ध, रूक्ष, श्वेत, रक्त, मधुर, आम्ल, कषाय आदि दृष्टिओं से धान्यों का वर्गीकरण किया है (पृ० १६४-५) ।
३३ वें जाणजोणी (यानयोनि) नामक अध्याय में नाना प्रकार के यानों का उल्लेख है। जैसे शिबिका, भद्दासन, पल्लंकसिका (पालकी), रथ, संदमाणिका (स्यन्दमानिका एक तरह की पालकी), गिल्ली (डोली), जुग्ग (विशेष प्रकार की शिबिका जो गोल्ल या आन्ध्र देश में होती थी), गोलिंग, शकट, शकटी इनके नाम आए हैं। किन्तु जलीय वाहनों
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