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भूमिका वाले), वेलंबक (विडंबक, विदूषक), गंडक (गंडि या घंटा बजाकर उद्घोषणा करने वाले), घोषक (घोषणा करने वाले)-इतने प्रकार के शिल्पिओं का उल्लेख कर्म-योनिनामक प्रकरण में आया है (पृ. १५९-१६१) ।
उन्तीसवें अध्याय का नाम नगरविजय है। इस प्रकरण में प्राचीन भारतीय नगरों के विषय में कुछ सूचनाएँ दी गई हैं । प्रधान नगर राजधानी कहलाता था । उसीसे सटा हुआ शाखानगर होता था । स्थायी नगर चिरनिविष्ट और अस्थायी रूप से बसे हुए अचिरनिविष्ट कहलाते थे । जल और वर्षा की दृष्टि से बहूदक या बहुवृष्टिक एवं अल्पोदक या अल्पवृष्टिक भेद थे । कुछ बस्तियों को चोरवास कहा गया है (जैसे सौराष्ट्र के समुद्र तट पर बसे वेरावल के पास अभी भी चोरवाड़ नामक नगर है)। भले मनुष्यों की बस्ती आर्यवास थी। और भी कई दृष्टियों से नगरों के भेद किये जाते थे-जैसे परिमंडल और चतुरस्र, काष्ठप्राकार वाले नगर (जैसा प्राचीन पाटलिपुत्र था) और ईंट के प्राकार वाले नगर (इट्टिकापाकार), दक्षिणमुखी और वाममुखी नगर, पविट्ठ नगर (घनी बस्ती वाले), विस्तीर्ण नगर (फैलकर बसे हुए), गहणनिविट्ठ (जंगली प्रदेश में बसे हुए), उससे विपरीत आरामबहुल नगर (बाग-बगीचोंवाले; अं० पार्क सिटी), ऊँचे पर बसे हुए उद्धनिविट्ठ, नीची भूमि में बसे हुए, निव्विगंदि (सम्भवतः विशेष गन्ध वाले), या पाणुप्पविट्ठ (चांडालादि जातियों के वासस्थान; पाण = श्वपच चांडाल, देशीनाममाला ६३८) । प्रसन्न या अतीक्ष्ण दंड और अप्रसन्न या बहुविग्रह, अल्प परिक्लेश और बहुपरिक्लेश नगर भी कहे गये हैं । पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर दिशाओं की दृष्टि से, अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्णों की दृष्टि से भी नगरों का विभाग होता था । बहुअन्नपान, अल्पअन्नपान, बहुवतक (बहुवात या प्रचंड वायु के उपद्रव वाले), बहुउण्ह (अधिक उष्ण), आलीपणकबहुल (बहु आदीपन या अग्नि वाले), बहूदक, बहुवृष्टिक, बहूदकवाहन नगर भी कहे गये हैं (पृ० १६१-१६२) ।
तीसवाँ अध्याय आभूषणों के विषय में है । पृ० ६४, ७१ और ११६ पर भी आभूषणों का वर्णन आ चुका है। आभूषण तीन प्रकार के होते हैं। (१) प्राणियों के शरीर के किसी भाग से बने हुए (पाणजोणिय), जैसे शंखमुक्ता, हाथीदाँत, जङ्गली भैंसे के सींग आदि, बाल, अस्थि के बने हुए; (२) मूलजोणिमय अर्थात् काष्ठ, पुष्प, फल, पत्र आदि के बने हुए; (३) धातुयोनिगत जैसे-सुवर्ण, रूपा, ताँबा, लोहा, वपु (राँगा), काललोह, आरकुड (फूल, काँसा), सर्वमणि, गोमेद, लोहिताक्ष, प्रवाल, रक्तक्षार-मणि (तामड़ा), लोहितक आदि के बने हुए । श्वेत आभूषणों में चांदी, शंख, मुक्ता, स्फटिक, विमलक, सेतक्षार मणि के नाम हैं । काले पदार्थों में सीसा, काललोह, अंजन और कालक्षार मणि; नीले पदार्थों में सस्सक (मरकत) और नीलखार मणि; आग्नेय पदार्थों में सुवर्ण, रूपा, सर्वलोह, लोहिताक्ष, मसारकल्ल, क्षारमणि । धातुओं को पीटकर, क्षारमणि को उत्कीर्ण करके और रत्नों को तराशकर तथा चीरकोर कर बनाते हैं । मोतिओं को रगड़ कर चमकाया जाता है ।
- इसके बाद शरीर के भिन्न भिन्न अवयवों के गहनों की सूचियाँ हैं। जैसे सिर के लिये ओचूलक (अवचूलक वा चोटी में गूंथने का आभूषण, चोटीचक्क), णंदिविणद्धक (कोई मांगलिक आभूषण, सम्भवतः मछलियों की बनी हुई सुनहली पट्टी जो बालों में .बाईं ओर सिर के बीच से गुद्दी तक खोंसकर पहनी जाती थी जैसे मथुरा की कुषाण कला में स्त्री मस्तक पर मिली है), अपलोकणिका (यह मस्तक पर गवाक्षजाल या झरोखे जैसा आभूषण था जो कुषाण और गुप्तकालीन किरीटों में मिलता है), सीसोपक (सिर का बोर); कानों में तालपत्र, आबद्धक, पलिकामदुघनक (द्रुघण या मुंगरी की आकृति से मिलता हुआ कान का आभूषण), कुंडल, जणक, 'ओकासक (अवकाशक कान में छेद बड़ा करने के लिये लोढ़े या डमरू के आकारका), कण्णेपुरक, कण्णुप्पीलक (कान के छेद में पहनने का आभूषण)-इन आभूषणों का उल्लेख है। आँखों के लिए अंजन, भौहों के लिए मसी, गालों के लिये हरताल, हिंगुल और मैनसिल, एवं ओठो के लिए अलक्तक राग का वर्णन है । गले के लिए आभूषणों की सूची में कुछ महत्त्वपूर्ण नाम हैं; जैसे सुवण्णसुत्तक (= सुवर्णसूत्र), तिपिसाचक (त्रिपिशाचक अर्थात् ऐसा आभूषण जिसके टिकरे में तीन पिशाच या यक्ष जैसी आकृतियाँ बनी हों), विज्जाधारक (विद्याधरों की आकृतियों से युक्त टिकरा), असीमालिका (ऐसी माला जिसकी गुरियां या दाने खड्ग की आकृतिवाले हों),
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