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भूमिका
५१
स्त्रीजातीय आभूषणों में ये नाम हैं- शिरीषमालिका, नलीयमालिका (नलकी के आकार के मनकों की माला) मकरिका दो मगर मुखों को मिलाकर बनाया हुआ मस्तक का आभूषण), ओराणी (अवारिका या धनिए के आकार के दानों की माला), पुप्फितिका (पुष्पाकृति गहना ), मकण्णी (संभवतः लिपटकर बैठे हुए दो बंदरों के अलंकरण वाला आभूषण), लकड़ (कान में पहनने के चन्दन आदि काष्ठ के बुन्दे), वालिका (कर्णवल्लिका), कर्णिका, कुण्डमालिका (कुंडल), सिद्धार्थिका ( वह आभूषण जिस पर सरसों के दाने जैसे रवे उठाये गये हों), अंगुलि मुद्रिका, अक्षमालिका ( रुद्राक्ष की आकृति के दानों की माला), पयुका (पदिक की आकृति से युक्त माला), णितरिंगी (संभवतः लहरियेदार माला), कंटकमाला (नुकीले दानों की माला), घनपिच्छलिका (मोर-पिच्छी की आकृति के दानों से घनी गूथी हुई माला), विकालिका (विकालिका या घटिका जैसे दानों की माला), एकावलिका (मोतियों की इकलड़ो माला जिसका कालिदास और बाण में उल्लेख आया है), पिप्पलमालिका (पीपली के आकार के दानों की माला जिसे मटरमाला भी कहते हैं), हारावली (एक में गूथे हुए कई हार), मुक्तावली (मोतियों की विशेष माला जिसके बीच में नीलम की गुरिया पड़ी रहती थी) ।
कमर के आभूषणों में काँची, रशना, मेखला, जंबूका (जामुन की आकृति के बड़े दानों की करधनी जैसी मथुरा कला में मिलती है, कंटिका (कंटीली जैसे दानों वाली), संपडिका (कमर में कसी या मिली हुई करधनी) के नाम हैं ।
पैर के गहनों में पादमुद्रिका (पामुद्दिका), पादसूचिका, पादघट्टिका, किंकिणिका (छोटे घूँघरूवाला आभूषण) और वम्मिका (पैरों का ऐसा आभूषण जिसमें दीमक की आकृति के बिना बजने वाले घूँघरू के गुच्छे लगे रहते हैं, जिन्हें बाजरे के घूँघरू भी कहते हैं ) ( पृ० ७१) ।
शयनासन और यानों में प्रायः पहले के ही नाम आये हैं। बर्तनों के नामों में ये विशेष हैं-करोडी (करोटिका – कटोरी), कांस्यपात्री, पालिका (पालि), सरिका, भृंगारिका, कंचणिका, कवचिका । बड़े बर्तनों (भाण्डोपकरण) के ये नाम उल्लेखनीय हैं- आलिन्दक (बड़ा पात्र), पात्री ( तश्तरी), ओखली (थाली), कालंची, करकी, (टोंटीदार करवा), कुठारीका (कोष्ठागार का कोई पात्र) थाली, मंडी (माँड पसाने का बर्तन), घड़िया, दव्वी (डोई), केला (बड़ा घड़ा), ऊष्ट्रिका (गगरी), माणिका ( माणक नामक घड़े का छोटा रूप), जिसका (मिट्टी का सिलौटा), आयमणी (आचमनी या चमची), चुल्ली, फुमणाली (फुंकनी), समंछणी (पकड़ने की संडसी), मंजूषिका (छोटी मंजूषा), मुद्रिका (ऐसा बर्तन जिसमें खान-पान की वस्तु मोहर लगाकर भेजी जाँय ), शलाकाञ्जनी (आंजने की सलाई), पेल्लिका ( रस गारने का कोई पात्र), धूतुल्लिका (कोई ऐसा पात्र जिसमें धूता या पुतली बनी हो), पिछोला (मुँह से बजाने का छोटा बाजा), फणिका (कंधी), द्रोणी, पटलिका, वत्थरिका, कवल्ली (गुड़ बनाने का बड़ा कड़ाह) आदि ( पृ० ७२) ।
तीसरे द्वार में नपुंसक जाति के अंगों का परिगणन है। चौथे द्वार में दाहिनी ओर के १७ अंगों के नाम हैं । पाँचवें द्वार में १७ बाईं ओर के अङ्ग, छठे द्वार में १७ मध्यवर्ती अंग, सातवें द्वार में २८ दृढांग, आठवें द्वार में २८ चल अंग और उनके शुभाशुभ फलों का कथन है । नवें द्वार से लेकर २७० वें द्वार तक शरीर के भिन्न भिन्न अंग और उनके नाना प्रकार के फलों का बहुत ही जटिल वर्णन है । इन थका देने वाली सूचियों से पार पाना इस विषय के विद्वानों के लिए भी दूभर काम रहा होगा ( पृ० ७२–१२९) । दसवें अध्याय में प्रश्नकर्ता के आगमन और उसके रंग-ढंग, है ( पृ० १३० - १३५ ) ।
आसन आदि से फलाफल का विचार
पुच्छित नामक ग्यारहवें अध्याय में प्रश्नकर्त्ता की स्थिति एवं जिस स्थान में प्रश्न किया जाय, उसके आधार पर फलाफल का कथन है । सांस्कृतिक दृष्टि से यह अध्याय महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें तत्कालीन स्थापत्य संबंधी अनेक शब्दों का संग्रह आ गया है; जैसे कोट्ठक (कोष्ठक या कोठा), अंगण ( आंगन या अजिर) अरंजरमूल (जलगृह), गर्भगृह (आभ्यंतरगृह या अन्तःपुर) भत्तगिह (भोजन शाला), वच्चगिह (वर्च कुटी, या मार्जनगृह),
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