________________
५०
अंगविज्जापइण्णयं लगा था, क्योंकि नये ढाले गये सिक्कों की अपेक्षा वे उस समय पुराने समझे जाने लगे थे यद्यपि उनका चलन बेरोक-टोक जारी था । हुविष्क के पुण्यशाला लेख में ११०० पुराण सिक्कों के दान का उल्लेख आया है। खत्तपक संज्ञा चाँदी के उन सिक्कों के लिए उस समय लोक में प्रचलित थी जो उज्जैनी के शकवंशी महाक्षत्रपों द्वारा चालू किये गये थे और लगभग पहली शती से चौथी शती तक जिनकी बहुत लम्बी श्रृंखला पायी गई है। इन्हें ही आरम्भ में रुद्रदामक भी कहा जाता था । सतेरक यूनानी स्टेटर सिक्के का भारतीय नाम है। सतेरक का उल्लेख मध्यएशिया के लेखों में तथा वसुबन्धु के अभिधर्म कोश में भी आया है।
पृष्ठ ७२ पर सुवर्ण-काकिणी, मासक-काकिणी, सुवर्णगुञ्जा और दीनार का उल्लेख हुआ है । पृ० १८९ पर सुवर्ण और कार्षापण के नाम हैं । पृ० २१५-२१६ पर कार्षापण और णाणक, मासक, अद्धमासक, काकणी
और अट्ठभाग का उल्लेख है । सुवर्ण के साथ सुवर्ण-माषक और सुवर्ण-काकिणी का नाम विशेष रूप से लिया गया है (पृ० २१६) ।
दूसरे द्वार में (पृ० ६६-७२) पिचहत्तर स्त्री नामों की सूचियाँ हैं जिनमें मनुष्य, देवयोनि, चतुष्पद, पक्षी, जलचर, थलचर, वृक्ष, पुष्प, फल, भोजन, वस्त्र, आभूषण, शयनासन, यान, भाजन, भाण्डोपकरण और आयुधों के नाम हैं । स्त्रीजातीय मनुष्य नामों में निम्नलिखित उल्लेखनीय है-अमच्ची, वल्लभी, प्रतिहारी, भोगिनी, तलवरी, रदिनी (राष्ट्रिक नामक उच्च अधिकारी की पत्नी), सार्थवाही (सार्थवाहक नामक व्यापारी की पत्नी), इब्भी (इभ्य नामक श्रेष्ठी की पत्नी); देश के अनुसार लाटी, किराती, बब्बरी (बर्बर देश की), जोणिका (यवन देश की) शबरी, पुलिन्दी, आन्ध्री, दिमिलि (द्रमिल या द्राविड़ देश की स्त्री) (पृ० ६८) ।
देवयोनि (पृ० ६९) के अन्तर्गत कुछ देवियों के नाम महत्त्वपूर्ण हैं, जैसे इन्द्रमहिषी, असुरमहिषी, अइरिका, भगवती । किन्तु इस सूची में कुछ विदेश की देवियों के नाम भी आ गये हैं, उनमें अपला, अणादिता, अइराणी, सालि-मालिणी उल्लेखनीय हैं । अपला यूनानी देवी पलास अथीनी और अणादिता ईरान की अनाहिता ज्ञात होती हैं । सालि-मालिनी की पहचान चन्द्रमा की यूनानी देवी सेलिनी से संभवत: की जा सकती है । तिधिणी या तिधणी संज्ञा स्पष्ट नहीं है । हो सकता है यह रोम की देवी डायना का भारतीय रूप हो । अइराणी नाम पृ० २०५ और २२३ पर भी आया है । इसकी पहचान निश्चित नहीं । किन्तु प्राचीन देवियों की सूची में अफ़ोदिती का नाम इसके निकटतम है । यदि अइराणित्ति का पाठ अइरादित्ती रहा हो तो यह पहचान ठीक हो सकती है । रंभत्ति मिस्सकेसित्ति का पाठ भी कुछ बदला हुआ जान पडता है क्योंकि मिश्रकेशी का नाम पहले आ चुका है। मोतीचन्द्र जी को प्राप्त एक प्रति में रब्भं तिमिस्सकेसित्ति पाठ मिला था । इनमें तिमिस्सकेसी अरतेमिस नामक यूनानी देवी जान पड़ती है और रब्भ की पहचान इस्तर से संभव है जो प्राचीन जगत् में अत्यन्त विख्यात थी और जिसे रायी, रीया भी कहा जाता था ।
स्त्रीजातीय वस्त्रों के नामों में ये शब्द उल्लेखनीय हैं-पत्रोर्ण, प्रवेणी सोमित्तिक (अर्थशास्त्र की सौमित्रिका जिसकी पहचान श्री मोतीचन्द जी ने पेरिप्लस के सगमोतोजिन से की है), अर्धकौशेयिका (जिसमें आधा सूत
और आधा रेशम हो), कौशेयिका (पूरे रेशमी धागेवाला), पिकानादित (यह संभवत: बहुत महीन अंशुक था जिसे स्त्रियां पिकनामक केशपाश सिर पर बनाते समय बालों के साथ गूंथती थीं; पिक नामक केशपाश का उल्लेख अश्वघोष के सौन्दरनंद ७/७ में शुक्लांशुकाट्टाल नाम से एवं पद्मप्राभृतक नामक भाण में कोकिल केशपाश नाम से आया है और उसका रूप मथुरा वेदिकास्तंभ संख्या जे० ५५ के अशोक दोहद दृश्य में अंकित हुआ है), वाउक या वायुक (बापत हवा), वेलविका (बेलदार या बेलभांत से युक्त वस्त्र) माहिसिक (महिष जनपद या हैदराबाद के बुने हुए वस्त्र), इल्लि (कोमल या कृष्ण वर्ण के वस्त्र), जामिलिक (बौद्ध संस्कृत में इसे ही यमली कहा गया है, दिव्यावदान २७६।११; पादताडितकं नामक भाण के श्लोक ५३ में भी इसका उल्लेख हुआ है, जिससे ज्ञात होता है कि यह एक प्रकार का कायबंधन या पटका था जिसमें दो भिन्न रंग के वस्त्रों को एक साथ बटकर कटि में बाँधा जाता था-समयुगलनिबद्धमध्यदेश:) । विशेषतः ये वस्त्र चिकने मोटे अच्छे बुने हुए सस्ते या मंहगे होते थे (पृ० ७१) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org