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________________ प्रस्तावना ग्रन्थका बाह्य स्वरूप यह ग्रन्थ गद्य-पद्यमय साठ अध्यायों में समाप्त होता है और नव हजार श्लोक परिमित है । साठवाँ अध्याय दो विभाग में विभक्त दोनों स्थान पर साठवें अध्याय की समाप्तिसूचक पुष्पिका है । मेरी समझ से पुष्पिका अन्त में ही होनी चाहिए, फिर भी दोनों जगह होने से मैंने पुव्वद्धं उत्तरद्धं रूप से विभाग किया है । पूर्वार्ध में पूर्वजन्म विषयक प्रश्न- फलादेश है और उत्तरार्ध में आगामि जन्म विषयक प्रश्न- फलादेश है । आठवें और उनसठवें अध्याय के क्रम से तीस और सत्ताईस पटल (अवान्तर विभाग) है। नववाँ अध्याय, यद्यपि कहीं कहीं पटलरूपमें पुष्पिका मिलने से (देखो पृ. १०३) पटलों में विभक्त होगा परन्तु व्यवस्थित पुष्पिकायें न मिलने से यह अध्याय कितने पटलों में समाप्त होता है यह कहना शक्य नहीं । अतः मैंने इस अध्याय को पटलों से विभक्त नहीं किया है किन्तु इसके प्रारंभिक पटलमें जो २७० द्वार दिये हैं उन्हीके आधार से विभाग किया है । मूल हस्तलिखित आदर्शों में ऐसे विभागों का कोई ठिकाना नहीं है, न प्रतियों में पुष्पिकाओं का उल्लेख कोई ढंगसर है, न दोसौ सत्तर द्वारों का निर्देश भी व्यवस्थित रूप से मिलता है, तथापि मैंने कहीं भ्रष्ट पुष्पिका, कहीं भ्रष्ट द्वारांक, कहीं पूर्ण घट का चिह्न जो आज विकृत होकर अपनी लिपि का "हठ" सा हो गया है, इत्यादि के आधार पर इस अध्याय के विभागों को व्यवस्थित करने का यथाशक्य प्रयत्न किया है । इस ग्रंथ में पद्यों के अंक, विभागों के अंक, द्वारों के अंक वगैरह मैंने ही व्यवस्थित रूपसे किये हैं । लिखित आदर्शों में कहीं कहीं पुराने जमाने में ऐसे अंक करने का प्रयत्न किया गया देखा जाता है, किन्तु कोई भी इसमें सफल नहीं हुआ है। सब के सब अधबिच में ही नहीं किन्तु शुरू से ही पानी में बैठ गये हैं, फिर भी मैंने इस ग्रन्थ में साद्यंत विभागादि करने का सफल प्रयत्न किया है । ग्रंथ की भाषा और जैन प्राकृत के विविध प्रयोग जैन आगमों की मौलिक भाषा कैसी होगी — यह जानने का साधन आज हमारे सामने कोई भी नहीं है । इसी प्रकार मथुरा- वल्लभी आदि में आगमों को पुस्तकारूढ किये तब उसकी भाषा का स्वरूप कैसा रहा होगा इसको जानने का भी कोई साधन आज हमारे सामने नहीं है । इस दशा में सिर्फ आज उन ग्रन्थों की जो प्राचीन- अर्वाचीन हस्तप्रतियाँ विद्यमान हैं—यह एक ही साधन भाषानिर्णय के लिये बाकी रह जाता है । इतना अनुमान तो सहज ही होता है कि जैन आगमों की जो मूल भाषा थी वह पुस्तकारूढ करने के युगमें न रही होगी, और जो भाषा पुस्तका करनेके जमाने में थी वह आज नहीं रही है-न रह सकती है। प्राचीन-अर्वाचीन चूर्णिव्याख्याकारादि ने अपने चूर्णिव्याख्याग्रन्थों में जो सारे के सारे ग्रन्थ की प्रतीकोंका संग्रह किया है, इससे पता चलता है कि सिर्फ आगमों की मौलिक भाषामें ही नहीं, किन्तु पुस्तकारूढ करने के युग की भाषा में भी आज काफी परिवर्तन हो गया है । प्राकृत वृत्तिकार अर्थात् चूर्णिकारों ने अपनी व्याख्याओं में जो आगमग्रन्थों की प्रतीकोंका उल्लेख किया है उससे काफी परिवर्तनवाली आगमग्रन्थों की प्रतीकोंका निर्देश संस्कृत व्याख्याकारोंने किया है इससे प्रतीत होता है कि आगमग्रन्थों की भाषा में काफी परिवर्तन हो चुका है। ऐसी परिस्थिति में आगमों की प्राचीन हस्तप्रतियाँ और उनके ऊपर की प्राकृत व्याख्यारूप चूर्णियाँ भाषानिर्णय के विधान में मुख्य साधन हो सकती हैं। यद्यपि आज बहुत से जैन आगमों की प्राचीनतम हस्तलिखित प्रतियाँ दुष्प्राप्य हैं तो भी कुछ अंगआगम और सूर्यप्रज्ञप्ति आदि उपांग वगैरह आगम ऐसे हैं जिनकी बारहवीं - तेरहवीं शताब्दी में लिखित प्राचीन हस्तप्रतियाँ प्राप्य हैं। कितनेक आगम ऐसे भी हैं जिनकी चौदहवीं और पन्दरहवीं शताब्दी में लिखित प्रतियाँ ही प्राप्त हैं । इन प्रतियों के अतिरिक्त आगमग्रन्थों के ऊपर की प्राकृत व्याख्यारूप चूर्णियाँ आगमों की भाषा का कुछ विश्वसनीय स्वरूप निश्चित करने में महत्त्व का साधन बन सकती हैं, जिन चूर्णियों में चूर्णिकारोंने जैसा ऊपर मैं कह आया हूं वैसे प्रायः समग्र ग्रन्थ की प्रतीकों का संग्रह किया है । यह साधन अति महत्त्व का एवं अतिविश्वसनीय है । यद्यपि चूर्णिग्रन्थों की अति प्राचीन प्रतियाँ लभ्य नहीं हैं तथापि Jain Education International" For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001439
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size12 MB
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