SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ अंगविज्जापइण्णयं है, वे मैंने दो हस्तचिह्नों के बीच में रक्खे हैं । देखो पृष्ठ- पंक्ति - ३ - ३, ४–२४, १२ - ११, १४–११, २६-१५, ३२–१६, ३३–२०, ४२ - २५ आदि, ४९-९ आदि, ५१ - १२, ५२ - २५, ६१-३१, ६६–४, ७३–१७ आदि, ७४–११ आदि, ७८–९, ८०–४, ८६–१, ८८-१६, ९७–७, आदि, ९९-६, १०० -५ आदि, १०५ - १३, १०६–१७, १०९-१४, ११०–१५, १११-२७, ११३ - १३, ११५-२८, ११९-३०, १२० –२, १२९-५ आदि, १३१-८, आदि १३२–१७, १३५–१ आदि, १५२–९, १६७ - १२ आदि, १७२ -६, १७७-२ आदि, १७८-२, १८५–१०, १८९-२०, १९०–२५, १९१–१७ आदि, १९४ - ११ आदि, १९६ - १२, १९९-६, २००-३२, २०१-१५ आदि, २०८-२७, २१०–२९, २११–२४, २१५–७, २१६ - २५, २१७ – ९ आदि, २१८-८ आदि, २२५ - २४, २२८-३३, २२९–१४, २४०-१६ आदि, २४३ –५, २५२ - १२, २५९ - २८, २६० - ३, २६१–८, २६२ – ९, २६६ - १७ प्रभृति । इन सब स्थानों में श्लोकार्ध एवं संपूर्ण श्लोक गलित है। इनके अतिरिक्त इन स्थानों को भी देखें, जहाँ कि दो, तीन, चार और पाँच श्लोक जितना पाठ गलित है-पृष्ठ-पंक्ति १४ –६, ४६ - २३, ४९ - १६, ९५ - २५, ९८-३, ९८–१४, १०८ - २५, १३३—– १७, १३७–१, १४२–२४, १५७–२९, १९३-२३, २०१-१५, २१३ - १६, २५५ - १२ । छोटे-छोटे गलितपाठ तो बहुत हैं । जो पाठ एवं पाठसंदर्भ सं० ली० मो० पु० सि० प्रतियों में उपलब्ध होते हैं किन्तु हं० त० प्रतियों में गलित हैं, वे मैंने 04 Do ऐसे त्रिकोण चिह्न के बीच में रक्खे हैं । देखो पृष्ठ- पंक्ति १२-६, २१-२८, ३४–७, ३७–६, ४३–१०, ४७–३ आदि, ४८-२५, ४९-१२ आदि, ५४-१२, ६७२२, ७४–१५, ८२–१७, ८५-५ आदि, १०२ - २२, १३१-१ आदि, १३३-४ आदि, १५२ - १०, १६९ - १४, १७०–४, १७३ – ३, १८९ - २५, १९१–१८, १९२ – ११, १९६ - १८, २०५–२२ आदि, २०८ - २४, २११ – १, २२९ - १२, २४५-३, २४८–१०, २५६–६, २५८–९, २६२ - ९, २६५-१५, २६८ - १६, प्रभृति । इन स्थानों में श्लोकार्ध एवं संपूर्ण श्लोक गलित हैं । इनके अतिरिक्त इन स्थानों को भी देखिये, जहाँ दो-तीन - चार-पाँच श्लोक जितना संदर्भ गलित है-पृष्ठ- पंक्ति २४- २२, १०७ १५, १३७–८, १६६ - १०, २३२ - २१, २३६ - १८, २६० - २५ । छोटे छोटे गलित पाठ तो अत्यधिक है । कहीं कहीं एक-दूसरे कुल की प्रतियों में एक दो अक्षरादि गलित वगैरह हुआ है वहाँ उपरिनिर्दिष्ट चिह्न नहीं भी किये गये हैं । संपादन में मौलिक आधारभूत प्रतियाँ ऐसे तो इस ग्रंथ के संशोधन में यथायोग्य सब प्रतियाँ आधारभूत मानी गई हैं, फिर भी जहाँतक हो सका है, मैंने सं० ली० मो० पु० सि० प्रतियों को ही मौलिक स्थान दिया है। जैसलमेर की चौदहवीं एवं पंदरहवीं शताब्दी लिखित ताडपत्रीय प्रतियाँ एवं अन्यान्य भंडार की सोलहवीं एवं पिछली शताब्दीयों में लिखित प्रतियों का इसी कुल में समावेश होता है । इन प्रतियों को मौलिक स्थान देने का खास कारण यह है किजैन आगमिक प्राकृतभाषा जो प्रायः तकार बहुल एवं ह के स्थानमें ध का प्रयोग आदिरूप है, वह इस कुल की प्रतियों में अधिकतया सुरक्षित है। हं० त० प्रतियों में आपवादिक स्थानों को छोड़कर सारे ग्रंथ में इस प्राचीन प्राकृत भाषा का समग्रभाव से परिवर्तन कर दिया गया है। ऐसा परिवर्तन करने में कहीं कहीं त आदि वर्णों का परिवर्तन गलत भी हो गया है, जो अर्थ की विकृतता के लिये भी हुआ है । अतः मुझे यह प्रतीत हुआ कि इस ग्रंथ की मौलिक भाषा जो इस कुल की प्रतियों में है वही होनी चाहिए । इस कारण से मैंने सं० ली० मो० पु० सि० प्रतियाँ मौलिक मानी हैं और इन्हीं प्रतियों की भाषा एवं पाठों को मुख्य स्थान इस संशोधन एवं संपादन में दिया है। किन्तु जहाँ पर सं० ली० आदि प्रतियों में छूट गया पाठ हं० त० प्रतियोंमें से लिया गया है वहाँ पर हं० त० प्रतियों में जो और जैसा पाठ है उसको विना परिवर्तन किये लिया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001439
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy