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प्रस्तावना
संशोधन और संपादन पद्धति उपरि निर्दिष्ट सात प्रतियों के अतिरिक्त युगप्रधान आचार्य श्रीजिनभद्रसूरि महाराज के जैसलमेर के प्राचीन ज्ञानभण्डार की ताडपत्रीय प्रति, बड़े उपाश्रय की ताडपत्रीय प्रति और थिरूशाह के भण्डार की कागज की प्रति, एवं बीकानेर, बड़ौदा, अहमदाबाद आदि के ज्ञानभण्डारों की कई प्रतियों का उपयोग इस ग्रन्थ के संशोधन के लिए किया गया है। किन्तु इन प्रतियों में से एक भी प्रति में कोई भी ऐसा पाठ प्राप्त नहीं हुआ है कि जिससे ग्रन्थ के संशोधन में विशिष्टता प्राप्त हो । अत: जिन प्रतियों का इस संशोधन में साद्यन्त उपयोग किया गया है उन्हीं का परिचय यहाँ दिया गया है। जैसलमेर आदि स्थानों में पादविहार करने के पूर्व ही मैंने इस ग्रन्थ को सांगोपांग तैयार कर लिया था, किन्तु जब अन्यान्य ज्ञानभण्डारों में इस ग्रन्थ की प्रतियाँ मेरे देखने में आईं तब उनके साथ मेरी प्रतिकृति की मैंने शीघ्र ही तुलना कर ली, परन्तु कोई खास नवीनता कहीं से भी प्राप्त नहीं हुई है। इस प्रकार अन्यान्य ज्ञानभण्डारोकी जो संख्याबंध प्राचीन-अर्वाचीन प्रतियाँ आज दिन तक मेरे देखने में आई हैं, उनसे पता चला है कि प्रायः अधिकतर प्रतियाँ-जिनमें जैसलमेर की ताडपत्रीय प्रतियों का भी समावेश हो जाता है, एक ही कुलकी और समान अशुद्धि एवं समान गलित पाठवाली ही हैं। हं० और तक ये दो प्रतियाँ भी ऐसी ही अशुद्ध एवं गलित पाठवाली ही हैं, फिर भी ये दो प्रतियाँ अलग कुल की होने से इन प्रतियों की सहायता से यह ग्रन्थ ठीक कहा जाय ऐसा शुद्ध हुआ है-हो सका है । तथापि यह ग्रन्थ अन्य प्राचीन कुल की प्रत्यन्तरों के अभाव में पूर्णतया शुद्ध नहीं हो सका है, क्योंकि इसमें ऐसे बहुत से स्थान हैं जहाँ प्रतियों में रिक्तस्थान न होने पर भी अर्थानुसन्धानके आधार से जगह-जगह पर पाठ एवं पाठसंदर्भ खण्डित प्रतीत होते हैं । इन स्थानों में जहाँ पूर्ति हो सकी वहाँ करने का प्रयत्न किया है ।
और जहाँ पूर्ति नहीं हो सकी है वहाँ रिक्तस्थानसूचक" "ऐसे बिन्दु किये हैं । ये पूर्ति किये हुए पाठ और रिक्तस्थानसूचक बिन्दु मैंने [ ] ऐसे चतुरस्त्र कोष्ठक में दिये हैं । देखो पूर्ति किये हुए पाठपृष्ठ पंक्ति ९-१३, ११-८, १४-८, . ४१-१५, ४६-२५, ५८-६, ७२-२४, ८५-११, ८६-२५, ९३-८, ९६-२८, ९७-६, ९७–१४, १०३-१३, १०६-३, १०९-५, २०७–१२, २१३-२३ आदि । और खंडित पाठसूचक रिक्तबिन्दुओं के लिए देखो, पृष्ठपंक्ति १८-९, २८-८, ६२-२४, ६३-४, ६७–२१, ७०-१३, ७४-२८, ७९-११, ८५-३, ९८-१५, ११६-२१, १२०-२८, १२७-२६, १२८-५, १२९-१५, १४१-१० आदि, १४२-१९, १५१-६, १५५-२०, २३३-३१, २३६-५, २४५-१५, २५०-१३, २६१-३, २६७-२४ आदि ।
जहाँ सभी प्रतियों में पाठ अशुद्ध मिले हैं वहाँ पूर्वापर अनुसंधान एवं अन्यान्य ग्रंथादि के आधार से ग्रंथ को शुद्ध करने का प्रयत्न बराबर किया गया है । कभी कभी ऐसे स्थानों में अशुद्ध पाठ के आगे शुद्ध पाठको ( ) ऐसे वृत्त कोष्ठक में दिया गया है । देखो पृष्ठ-पंक्ति २-६, ५-६, ९-१४, ३०-२२, ८१-१२, १२८-३१, १८३-६, १९६-२८ प्रभृति ।
मैं ऊपर अनेकबार कह आया हूं कि प्रस्तुत ग्रन्थ के संशोधन के लिये मेरी नजर सामने जो हाथपोथियाँ हैं वे सब खंडित-भ्रष्ट पाठ की एवं अशुद्धि शय्यातररूप या अशुद्धि भाण्डागार स्वरूप हैं। फिर भी ये प्रतियाँ दो कुल परम्परा में विभक्त हो जाने के कारण इन प्रतियों ने मेरे संशोधन में काफी सहायता की है। एक कुल की प्रतियों में जहाँ अशुद्ध पाठ, गलित पाठ या गलित पाठसंदर्भ हो वहाँ दूसरे कुल की प्रतियों ने सैकड़ों स्थानों में ठीक ठीक जवाब दिया है। और ऐसा होने से यह कहा जा सकता है कि दोनों कुल की प्रतियों ने जगह जगह पर शुद्ध पाठ, गलित पाठ और पाठसंदर्भो को ऐसे सँभाल रक्खे हैं, जिससे इस ग्रंथ की शुद्धि एवं पूर्ति हो सकी है । मेरी नजरके सामने जो दो कुल की प्रतियाँ हैं उनमें से दोनों कुलों की प्रतियों ने कौन से कौन से शुद्ध पाठ दिये, कौन से कौन से गलितपाठ और पाठसंदर्भ की पूर्ति की? - इसका पता चले इसलिये मैंने प्रतिपृष्ठ में पाठभेदादि देने का प्रयत्न किया है। जो पाठ या पाठसंदर्भ हं० त० प्रतियोंमें से प्राप्त हुए हैं और वे सं० ली. मो० पु० सि० प्रतियों में गलित
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