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अंगविज्जापइण्णय है, अत: वह दीर्घायुष्क हो गई है। हं० प्रति और त० प्रति ये दोनों प्रतियाँ एक कुल की हैं। शुद्धि की दृष्टि से यह नितान्त अशुद्ध है और जगह-जगह पर इसमें पाठ, पाठसंदर्भ गलित है, फिर भी हं० प्रति से यह प्रति बहुत अच्छी . है । यह प्रति तपागच्छ भंडार की होने से इसकी संज्ञा मैंने त० रक्खी है ।
३ सं० प्रति-यह प्रति पाटन के श्री हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर में स्थित श्रीसंघ के भंडार की है। भंडार में प्रति का क्रमांक ६९९ है और इसकी पत्रसंख्या १४८ है। पत्र के प्रतिपृष्ठ में १५ पंक्तियाँ और प्रति पंक्ति ५५ से ६३ अक्षर लिखे गये हैं। प्रति की लंबाई-चौड़ाई ११॥ x ४|| इञ्चकी है। लिपि सुंदर है किन्तु इसकी अवस्था इतनी जीर्णातिजीर्ण हो गई है कि इस को हाथ लगाना या पत्र उठाना बडा कठिन कार्य है; फिर भी संपूर्णतया मृत्युमुख में पहुँची हुई इस प्रति का उपयोग, प्रति की हिंसा करने के दोष को सिर पर ऊठा करके भी मैंने संपूर्णतया किया है। प्रति अति अशुद्ध होने के साथ, इस में स्थान-स्थान पर पाठ, पाठसंदर्भ आदि गलित हो गये हैं। यह प्रति संघ के भंडार की होने से इसकी संज्ञा मैंने सं० रक्खी है । प्रति के अंत में निम्नोल्लिखित पुष्पिका है -
"णमो भगवतीए सुतदेवताए । श्री। थाराप्रद्रजगच्छभूषणमणे: श्री शान्तिसूप्रिभोः चंद्रकुले ॥ छ । एताओ गाधाओ संलावजोणीपडले आदिदितिकाओ ।
पुढवगतजा काया समायुत्ता कधा भवे । आधारितणिसित्तढे कधेत्ताण व पुच्छति ॥ पसत्था अप्पसत्था वा. अत्था णिद्धा सुभाऽसुभा । णिग्गुणा गुणसु (जु) त्ता वा सम्मत्ता वा असम्मता ॥ दुरा इति आसन्ना दीह हस्सा धुवा चला । संपताऽणागताऽतीता उत्तमाऽधम-मज्झिमा ॥ जारिसी जाणमाणेण पुढवीसंकधा भवे । तेणेव पडिरूवेण तं तधा वग्गमादिसे ॥
श्रीअंगविद्यापुस्तकं संपूर्ण ॥ छ । ग्रंथानं ९००० ॥ छ । संवत् १५२१ वर्षे आषाढ वदि ९ भौमे श्रीपत्तने लिखितमिदं चिरं जीयात् ॥ छ ।॥ १ ॥ शुभं भवतु लेखकपाठकयोः ॥ छ ।
४ ली० प्रति—यह प्रति पाटन के श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर में स्थित श्री संघ के भंडार के साथ जुड़े हुए लींबडीपाडाभंडार की है । भंडार में इसका क्रमांक ३७२१ है और पत्रसंख्या इसकी १३१ है। इसकी लंबाई-चौडाई ११॥ x ४ इञ्च है। इसकी लिपि सुंदर है, किन्तु इसकी दशा सं० प्रति की तरह जीर्णातिजीर्ण है; इसका भी उपयोग इस ग्रन्थ के संशोधन में पूर्णतया किया गया है। प्रति अति अशुद्ध है और इसमें भी स्थान स्थान पर पाठ, पाठसंदर्भ आदि गलित हैं। प्रति लींबडीपाडा भंडार की होने से इसका सकेत ली० रक्खा है । प्रति के अंत में निम्नोद्धृत पुष्पिका है -
"णमो भगवतीए सुतदेवताए । श्री थारापद्रजगच्छभूषणमणी: श्री शान्तिसूपिभोः चंद्रकुले ॥ छ ॥ एताओ गाधाओ संलावजोणीपडले आदिदितिकाओ ।
पुढवीगत्तजा काया समायुत्ता कधा भवे । आधारितणिसित्तढे कधेत्ताण व पुच्छति ॥ पसत्था अप्पसत्था वा अत्था णिद्धा सुभाऽसुभा । णिग्गुणा गुणसुत्ता वा सम्मत्ता वा असम्मता ॥ दुरा इति आसन्ना दीह हस्सा धुवा चला । संपताऽणागताऽतीता उत्तमाऽधम-मज्झिमा ॥ जारिसी जाणमाणेण पुढवी संकधा भवे । तेणेव पडिरूवेण तं तधा वग्गमादिसे ॥ छ ।
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