________________
॥ जयन्तु वीतरागाः ॥
प्रस्तावना अंगविज्जापइण्णयग्रन्थ की हस्तलिखित प्रतियाँ
प्रस्तुत अंगविज्जापइण्णयं ग्रंथ के संशोधन के लिये निम्नोल्लिखित प्राचीन सात हस्तलिखित प्रतियों का साद्यन्त उपयोग किया गया है, जिनका परिचय यहाँ पर कराया जाता है -
१हं० प्रति-यह प्रति बड़ौदा-श्री आत्मारामजी जैन ज्ञानमंदिर में रखे हुए, पूज्यपाद जैनाचार्य श्री १००८ विजयानन्द सूरीश्वरजी महाराज के प्रशिष्य श्री १००८ श्री हंसविजयजी महाराज के पुस्तक-संग्रह की है। भंडारमें प्रति का क्रमांक १४०१/२ है और इसकी पत्रसंख्या १३८ है । पत्रके प्रति पृष्ठ में १७ पंक्तियाँ और हरएक पंक्ति में ५८ से ६५ अक्षर लिखे गये हैं। प्रति की लंबाई-चौड़ाई १३। x ५॥ इञ्च है। लिपि सुंदर है और प्रति की स्थिति अच्छी है । प्रति के अंत के तीन-चार पत्र नष्ट हो जाने के कारण इसकी पुष्पिका प्राप्य नहीं हैं, फिर भी प्रति के रंग-ढंग को देखते हुए यह प्रति अनुमानतः सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में या सत्रहवीं सदी के प्रारम्भ में लिखित प्रतीत होती है । प्रति शुद्धि की दृष्टि से बहुत ही अशुद्ध हैं और जगह-जगह पर पाठ और संदर्भ भी गलित हैं । प्रति हंसविजयजी महाराज के संग्रह की होने से इस का संकेत मैंने हं० रखा है । यह प्रति पंन्यास मुनिवर श्री रमणीकविजयजी द्वारा प्राप्त हुई है।
२त० प्रति-यह प्रति पाटण (उत्तर गूजरात) के श्री हेमचन्द्राचार्य जैन-ज्ञानमंदिर में, वहाँ के तपागच्छीय
की सम्मति से रखे हुए तपागच्छ ज्ञानभंडार की है। भंडार में प्रति का क्रमांक १४८६५ है और इसकी पत्रसंख्या १३३ है । पत्र के प्रतिपृष्ठ में १५ पंक्तियाँ और प्रतिपंक्ति ६३ से ६९ अक्षर लिखे गये हैं । प्रति की लंबाई-चौड़ाई १३ x ४||| इञ्चकी है । लिपि भव्य है । प्रति के अंत में निम्नोद्धृत पुष्पिका है -
"णमो भगवईए सुयदेवयाए ॥ छ । ग्रंथाग्रं०८८०० ॥ संवत् १५०५ वर्षे श्रावण वदि ८ भौमे ॥ अंगविद्यापुस्तकं समाप्तम् ॥ छ । शुभं भवतु ॥ श्रीश्रमणसंघस्य कल्याणमस्तु ॥ ले० देवदत्तलिखितम् ।
श्री वीरदेवमतसुप्रभावको वीरदेवसाधुवरः । ऊकेशकुलाकाशप्रकाशने सोमसंकाशः ॥ १ ॥ तज्जाया निर्माया विल्हणदेव्यत्र धर्मकर्मरता । समजनि कलाधरोज्ज्वलशीलगुणालंकृता सततम् ॥ २ ॥ विजपालदेव आसीदनयोस्तनयो विराजितनयश्रीः । तज्जाया वरजाईनाम्नी श्रुतभक्तियुक्तमनाः ॥ ३ ॥ स्वजनकगूर्जर-जननी पूरा-वरबंधुपूनपालयुताः । श्रीजैनशासननभः प्रभासने तरुणतरणीनाम् ॥ ४ ॥ बाणखबाणधरामितवर्षे १५०५ श्रुत्वोपदेशवाचमिमाम् ।
श्री जयचंद्रगुरूणां समलीलिखदंगविद्यां ताम् ॥ ५ ॥ संवत् १५०५ वर्षे सा० गूर्जरभार्या पूरांपूत्र्या सा० पूनपालभगिन्या श्रा० [व] रजाई नाम्न्या श्रीतपागच्छाधिराज श्री सोपसुंदरसूरिपट्टालंकार भट्टाकार प्रभु श्री जयचंद्रसूरिसुगुरूणामुपदेशेन लिखिता श्री अंगविद्या जीयात् ।"
पुष्पिका को देखने से प्रतीत होता है कि प्रति विक्रम सं० १५०५ में लिखी हुई है। प्रति उद्देहिका से खाई हुई होने से अतिजीर्ण दशा में पहुँच गई होने पर भी किसी कलाधरने कुशलतापूर्वक साँधकर इसको पुनर्जीवन दिया अंग०१
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org