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________________ वे आगामी काल में भी ग्रन्थोंकी परम्परा अविच्छिन्न रहे इसके लिए भी यत्नशील थे । लेखकारों से काश्मीरी देशी कागज़ पर ग्रन्थों को लिखाकर उनकी क्षतियों भी वे स्वयं ही सुधारते थे । बृहत्कल्पसूत्र नियुक्ति, लघुभाष्य, सटीक - पत्रसंख्या १७६७, उद्देशक १ से ६ ग्रंथाग्र ४२६०० (प्रकाशक-आत्मानंद जैन सभा भाग १ से ६) - यह प्रति पूज्यश्रीने स्वयं कलम लेकर हरताल (Yellow-arsenic) से शुद्ध की है और अद्यापि लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर अमदावाद के हस्तप्रत विभाग में (भेंटसूचि क्र. १०४९ से १०५६) सुरक्षित है । __ हस्तलिखित पुस्तकों के रक्षण के लिए साग की लकड़ी के डिब्बों में रखने की परम्परा बहुत पुरानी है, परन्तु मुनिश्रीने सर्वप्रथम बार उन डिब्बों को Air-light बनाने की परिकल्पना की । फलतः लकडी के डिब्बों में रज के प्रवेश की शक्यता बहुत ही कम हो जाती है और ग्रन्थों को कपडे से नहीं बांधने पर भी हवाधूल आदि से रक्षण मिलता है । जैसलमेर में किया गया ज्ञानभण्डार का कार्य तो बहुत ही कष्टप्रद था । अत्यन्त ठंडी, अत्यन्त गर्मी और रणप्रदेशकी सतत आंधियाँ और ऐसे में अस्तव्यस्त हुए ताडपत्रों को व्यवस्थित मिलाने के लिए कमरे की खिड़कियाँ और दरवाजे बन्द कर के कार्य करने में हम सब जो परेशानी महसूस करते थे, उसका अंश भी पूज्यश्रीमें दिखता नहीं था, बल्कि वे तो पूरे दिन उत्साह से कार्य करते थे । यही उनके समत्व का प्रमाण है। वडोदरा में श्री आत्मानन्द जैन ज्ञानमन्दिर में पूज्यपाद मुनिश्री हंसविजयजी शास्त्रसङ्ग्रह में एक सुवर्णाक्षरीय सचित्र कल्पसूत्र की जौनपुर (प्राय: १६वीं शताब्दी)में लिखी गई प्रति जीर्ण हो जाने से बम्बई भेजी गई थी, जो सुधारकर अमदाबाद पूज्यश्रीको लुणसावाडा उपाश्रयमें पहुँचाई गई । यह प्रति पूज्यश्री के पास ही थी । उसे बम्बई जाते समय वडोदरा श्री संघ को वापस दे दी । उस समय ज्ञानभण्डार के ट्रस्टी महाशयों और संघ के अग्रणियों को वे एक-एक पत्र स्पष्ट दिखाते थे । उस समय मेरे मनमें विचार आया कि इसकी यहाँ कौन संभाल लेगा? वे मेरे इस विचारको समझ गये और तुरन्त मेरे सामने देखा और पूछा कि क्या सोच रहे हो यह पोथी कौन संभालेगा ? क्या ५०० वर्ष तक तुमने संभाली थी ? श्रीसंघ के पुण्य से इसकी संभाल लेनेवाले मिल जाएँगे । प्रति ट्रस्टी महोदयों को सौंप दी गई । मैंने सुना है कि आज भी वह बेन्क के लोकर में सुरक्षित है। 'भारतीय जैन श्रमणसंस्कृति और लेखनकला' (Gujarati)-नामक पुस्तक लिखकर पूज्यश्रीने हस्तप्रत भण्डार, उनकी लेखनपद्धति और संरक्षण पद्धतिकी जानकारी समाज के आगे रखी । गलित पाठदर्शक चिह्न आदि १६ प्रकार के प्राचीन हस्तप्रतों में प्राप्त चिह्नों का परिचय दिया । गण्डी, कच्छपी, मुष्टि, संपुटफलक और छीवाडी पुस्तकों का परिचय कराया । कागज की पोथियों के सूड, त्रिपाठ, पंचपाठ, हुंडी, जिब्भा, रिक्तलिपिचित्र, चोरअङ्क इत्यादि की समजूती दी । पुस्तकलेखन के उपकरण ओळियुं, फांटियु, कांठां, बरू, वतरणां, जुजवळ, प्राकार, कम्बिका और पुस्तक-संरक्षण के उपकरण ग्रन्थिका, पाठाँ, चाबखी, झलमल, वींटामj, कवळी इत्यादि विस्मृत हुए शब्दों के अर्थ प्रकाश में लाए । महावीर जैन विद्यालय की जगविख्यात जैन आगम ग्रन्थमाला तथा प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी की विद्वन्मान्य ग्रन्थ श्रेणियों के मुख्य सूत्रधार भी वे ही थे। इसके उपरान्त, एल. डी. इन्स्टीट्यूट, अमदावादकी सुप्रसिद्ध ग्रन्थावली में भी उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस तरह पूरे ६२ वर्ष तक ज्ञानसाधना करते करते उन्होंने वि.सं. २०२७ के ज्येष्ठ मास की कृष्ण षष्ठी के दिन बम्बईमें अंतिम सांस लिये । वि.सं. २०५३ उनकी जन्मशताब्दी का वर्ष था । इस सु-अवसर की स्मृति में प्राकृत ग्रन्थ परिषद् की ग्रन्थश्रेणि के प्रथम पुष्प-'अङ्गविज्जा' (पूज्यश्री द्वारा सम्पादित ग्रन्थ) का पुनर्मुद्रण करके प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी के कार्यवाहकों ने पूज्यश्री को समुचित अञ्जलि दी है। पूज्यश्री के सतत सहवास से मुझमें अविरत कार्य करने की वृत्ति उत्पन्न हुई, जिससे आज पर्यन्त (८३ वर्ष की उम्र में भी) में कार्यरत हूँ। में यहाँ उनका पवित्र स्मरण कर उनके चरणोमें वन्दन करता हूँ। १-जनवरी, २००० - लक्ष्मणभाई ही. भोजक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001439
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size12 MB
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