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________________ पूज्यपाद आगमप्रभाकर मुनिराजश्री पुण्यविजयजी महाराजजी का संक्षिप्त परिचय स्वनामधन्य पूज्य मुनिश्री पुण्यविजयजी महाराज का जन्म गुजरात के कपडवंज गाँव में विक्रम संवत् १९५२ कार्तिक शुक्ला पंचमी (ज्ञानपञ्चमी) के शुभ दिन हुआ था । उनकी माता का नाम माणेकबेन और पिता का नाम डाह्याभाई दोशी था । उनका संसारी नाम मणिलाल था । उन्होंने विक्रम संवत् १९६५ में महामास के कृष्ण पक्ष की पञ्चमी के शुभ दिन पू. मुनिराजश्री चतुरविजयजी महाराज के पास गुजरात में छाणी गांव में प्रव्रज्या ग्रहण की और उन्हें पुण्यविजयजी नाम प्रदान किया गया । उनका कालधर्म विक्रम संवत् २०२७ ज्येष्ठमास कृष्ण पक्ष षष्ठी के दिन बम्बई में हुआ । दादागुरु पूज्य प्रवर्तक मुनि श्री कान्तिविजयजी महाराज से प्रकरण-ग्रन्थों का, पण्डित श्री भाइलालभाई से संस्कृत मार्गोपदेशिका का, पण्डित नित्यानन्दजी से सिद्धहैम-लधुवृत्ति, हैमलघुप्रक्रिया इत्यादि का और जैन दर्शन सहित सर्व भारतीय दर्शनों के प्रखर विद्वान् पंडितवर्य श्री सुखलालजी संघवी से अध्ययन किया । उन्होंने संशोधनकार्य की शिक्षा पूज्य गुरुदेव मुनिश्री चतुरविजयजी के साथ कार्य करते हुए प्राप्त की । उन्होंने ग्रन्थ-भण्डारों के संरक्षण और ग्रन्थ-संशोधन में अपना समग्र जीवन व्यतीत किया । वे संशोधन-कार्य में इतने अत्यन्त परिश्रमी थे कि जिसके लिये यह एक ही दृष्टांत काफी है कि जब उन्हें प्रोस्टेट ग्लैण्ड के ओपरेशन के लिए बम्बई में अस्पताल ले जाने की परिस्थिति पैदा हुई, तब भी उन्होंने मुझे आवश्यक नियुक्ति-चूर्णि की प्रेसकापी साथ लेने की सूचना दी थी । जैन ज्ञानभण्डारों के उद्धार और आगमसंशोधन के कार्यों में उन्होंने जो परिश्रम किया है, उससे विद्वज्जगत् सुपरिचित है । मुझे उनके साथ रहने का सु-अवसर अतिदीर्घ काल पर्यंत (ई. १९५७ से १९७१ तक) मिला है। वे स्वाध्यायादि में अप्रमत्त थे । मैंने कदापि उन्हें दिन में विश्राम लेते नहीं देखा । वे किसी भी विद्वान् को स्वाध्याय-सामग्री शीघ्र ही लभ्य कराते थे और संशोधनकार्य में तो वे स्वयं ही अत्यन्त परिश्रम करते थे। लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर, अमदावाद के लिए हस्तलिखित ग्रन्थ संगृहीत करने का कार्य चल रहा था, तब यतिश्रीयों, महात्माओं, पण्डितों और व्यापारियों द्वारा लाए हुए हर एक ग्रन्थ को वे पूर्णतया दृष्टिसे सोचकर, पूरी परीक्षा कर और शारीरिक श्रम की परवाह किये बिना स्वयं निर्णय करते थे । किसी भण्डार में ग्रन्थ बिखर गये हों, तब उनके भिन्न-भिन्न पत्रों को पढ़कर वे उनको व्यवस्थित करते थे। ऐसे कार्य यथाशीघ्र सम्पन्न करने पडते थे। फिर भी वे कभी आक्लान्त नहीं होते, बल्कि बहुत आनन्दपूर्वक करते थे । आगम-प्रकाशन हेतु प्राचीन संशोधित और शुद्ध प्रति की खोज में वे ग्रन्थभण्डारों की तलाश करते रहते थे । जब कभी भी उन्हें अच्छी-शुद्ध प्रति मिली, तो उन्होंने तुरंत प्रतिलिपि करवाई थी । इस तरह उन्होंने लाखों श्लोकों की प्रतिलिपि करवाई है और पाठान्तर एकत्रित किये हैं । मुद्रित ग्रन्थों में से पाठान्तर अंकित करना, भ्रष्ट पाठ की शुद्ध करना इत्यादि निरन्तर चलता ही रहता था । यही कारण है कि उनके पास मुद्रितसंशोधित ग्रन्थों का भी एक सङ्ग्रह बन गया । __ पूज्य मुनिजीने ग्रन्थों पर लगी रज की सफाई से लेकर पोथी बांधने तक के सभी कार्य स्वयं किये हैं । जेसलमेर किले के भण्डार के ताडपत्रीय ग्रन्थों को बहुत लोगों ने अस्तव्यस्त कर दिया था, जिन्हें पुनः मुनिश्रीने व्यवस्थित किये । सूचीकरण में ग्रन्थ का नाम, कर्ता, रचनाकाल, लेखनकाल, भाषा, पत्रसंख्या, श्लोकसंख्या के अलावा, पत्रक्रमानुसार प्रतियोंको संपूर्ण व्यवस्थित करना, अच्छे कागज से आवृत करना, नाम-नम्बर लिखकर लकडी के बक्से में रखना, कपाट बनवाना, कपाट में पुस्तक रखवाना, इत्यादि सब कार्य समाविष्ट होते हैं । यह सब कार्य वे स्वयं करते व करवाते थे । कभी कोई ज्ञानभण्डार के ट्रस्टी पुस्तक देने में विलम्ब करे या बारबार समय दे कर भी न देवें, तो भी वे व्याकुलता महसूस नहीं करते थे । कई बार वे मुझे कहते थे, "इनके पूर्वजों ने यह सामग्री कितने परिश्रम से संभालकर रखी है, उनका यह गुण हम नजरअंदाज नहीं कर सकते ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001439
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size12 MB
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