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४. आचार्य श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण की
_अर्धमागधी भाषा* ___इन तीन अध्यायों के परिप्रेक्ष्य में आचार्य श्री हेमचन्द्र ने अर्धमागधी भाषा के लिए जिन जिन विशेषताओं का उल्लेख अपने प्राकृत व्याकरण में किया हैं उनका समालोचनात्मक अध्ययन करके उनके द्वारा दिये गये नियमों में कतिपय और मुद्दे जोङकर क्या अर्धमागधी का एक स्वतंत्र व्याकरण बनाया जा सकता है ?
आचार्य श्री हेमचन्द्र प्राकृत भाषाओं का व्याकरण 'अथ प्राकृतम्' (8.1.1) सूत्र से प्रारंम करते हैं। व्याकरण के जो नियम दिये जा रहे हैं उनमें प्रवृत्ति, अप्रवृत्ति, विभाषा, अन्यत् , इत्यादि विविधता के कारण इस भाषा की विशेष लाक्षणिकताओं को बतलाने के लिए उन्होंने दूसरा ही सूत्र दिया है 'बहुलम्' (8.1.2) । तत्पश्चात् 'आर्षम्' (8.1.3) का उल्लेख किया है जिसे ऋषियों की भाषा बतलायी गई है ।
इसी सम्बन्ध में सूत्र नं. 8.4.287 की वृत्ति में एक उद्धरण (आवश्यक सत्र से) प्रस्तुत किया है' -पोराणमद्भमागह-भासा-निययं हवइ सुत्तं अर्थात् पुराना सूत्र अर्धमागधी भाषा में नियत है । इसी को समझाते समय 'आर्ष' और 'अर्धमागधी' एक ही भाषा बतलायी गयी है-इत्यादिनार्षस्य अर्द्धमागधभाषां नित्यत्वम् ......(वृत्ति 8.4.287) ।
इसी अर्धमागधी या आर्ष भाषा के विषय में अपने व्याकरण * 'सबोधि' Vol. XVI, 1989 में प्रकाशित मेरे लेख 'अर्धमागधी भाषा
और आचार्य श्री हेमचन्द्र र प्राकृत व्याकरण' पृ 42 से 51 का यह विचित्
पनिवर्धित और संशोधित रूप है । उसे साभार यहाँ दिया जा रहा है । 1. पाइय-सह-महष्णवो, उपोद्घात पृ. 35, टिप्पण न. 4, द्वितीय आवृत्ति,.
ई स. 1963.
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