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प्राचीन अर्धमागधी की खोज में के आर चन्द्र
मूल अर्धमागधी और पालि साहित्य के सृजन का स्थल एवं समय तो एक ही रहा है । यदि ऐसी विभक्तियों के कुछ बचे हुए प्रयोग हमें 'अर्धमागधी में मिलते हैं तो वे प्राचीन परंपरा के ही द्योतक हैं ।
उदाहरण :- अणुपुत्वीय (आचा. 1.8 8 230 तृतीया ए. व.) इसिभासियाई से :- मुच्छाय (3 2 ष. ए. व.) अरणीय (अरण्याम् ) 22, पृ. 43.9; पुढवीय (पृथिव्याम् ) 22 पृ. 43.8
. इसी प्रकार आचारांग का एक प्रयोग 'सहसम्मुइयाए'-वास्तव में 'सहसम्मुइया' 1.1.1.2 होना चाहिए जैसा कि उत्तराध्ययन (28. 17) और आचा, की नियुक्ति गाथा 65 और 67 में तथा आचा. चूर्णी में पृ. 12 पर मिलता है । इस शब्द का दूसरा रूप सहसम्मुइए भी मिलता है ।
इसिभासियाई में-'ये' विभक्ति वाले निम्न प्रकार के प्रयोग मिलते हैं:
. सुभासियाए भासाये 33 4 । इसमें 'ए' के बदले में 'ये' .तृ. ए. व. की विभक्ति का प्रयोग है और यह 'ये' अशोक के शिलालेखों
की विभक्ति के बिलकुल समान है । इसी प्रकार का दूसरा उदाहरण है :* पादुप्पभायाए रयणीये-इसिभा. 37, पृ. . 3.23 स.ए.व. । आचारांगचूर्णि में भी-गाहाये चेव भण्णति अंडयादि (पृ. 35.11, स. ए. व.) का प्रयोग मिलता है ।
(त) भूतकाल के प्राचीन प्रत्ययोंवाले प्रयोग
अर्धमागधी में भूतकाल के लिए निम्न प्रकार के प्राचीन प्रत्यय मिलते हैं जो परवर्ती साहित्य में नहीं मिलते हैं । ये तृतीय पुरुष एकवचन और बहुवचन के प्रत्यय हैं ।
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