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प्राचीन अर्धमागधी की खोज में के आर.चन्द्र
अध (अथ) इत्थीपरिन्ना, सूत्रकृ. 1.4.1.23 (पुण्यविजयजी ) आख्या धातु के लिए 'आघ' वाले रूप जैसे कि आघं, आघवणा, आधविज्जन्ति, आघवित्तए, आघविय, आघवेमाण, इत्यादि जो प्रयोग अर्धमागधी ग्रंथों में मिलते हैं वे भी 'ख = घ' अर्थात् घोषीकरण के ही उदाहरण हैं ( पिशल
202, 551, 85, 88, 350, 382, इत्यादि )। . (6) उसी प्रकार पू. हेमचन्द्र द्वारा दिये गये ‘क = ग' के सिवाय
'च = ज'(8.1.177) पिसाजी(पिशाची), 'थ = ध' (8.1.186) (पिंध, पुध, (पृथक्) और ‘फ = भ' (8 1 236 रेफ = रेभ)
भी प्राकृत भाषा के प्राचीन प्रयोग प्रतीत होते हैं । (7) अर्धमागधी का काल अन्य प्राकृतों से प्राचीन है अतः .
'त = द' और 'थ = ध' का मिलना भाषाकीय विकास की दृष्टि से अनुपयुक्त नहीं है । इस विषय में श्रीमती नीति डोल्ची' का ऐसा कहना बिलकुल उचित लगता है कि पू. हेमचन्द्राचार्य ने जब सामान्य प्राकृत में तकार को द में बदलने का निषेध कर दिया तब से हस्तप्रतों में से ऐसे प्रयोग स्वतः निकल गये । इस बदली हुई पद्धति का ज्वलन्त उदाहरण है महावीर जैन विद्यालय द्वारा प्रकाशित आचारांग का संस्करण । संपादक पू. जंबूविजयजीने उसकी प्रस्तावना (पृ. 44) में स्पष्ट कर दिया है कि 'जधा' और 'तधा' के बदले में उन्होंने जहा (यथा) और तहा (तथा) रूप अपनाये हैं ।
1. The Prakrit Grammarians (1972) p. 159 f.n. 4 2. प्राकृत व्याकरण, 8.1 209
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