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२. अर्धमागधी में प्राचीन भाषाकीय तत्त्व .. जैन अर्धमागधी आगम साहित्य के प्राचीन ग्रंथों में कुछ ऐसे भाषाकीय प्रयोग मिलते हैं जो परवर्ती भाषा के प्रभाव में न आकर किसी न किसी प्रकार बच गये हैं और अपनी प्राचीनता को सुरक्षित रखे हुए हैं । यदि ऐसे प्रयोगों की परवर्ती प्राकृत भाषा के रूपों के साथ तुलना की जाय तो स्पष्ट होगा कि ये ही बचे हुए प्रयोग अर्धमागधी की प्राचीनता को (अन्य परवर्ती प्राकृतों, जैसे - शौरसेनी, महाराष्ट्री से ) सिद्ध करते हैं और कभी कभी वे पालि भाषा के समान हो ऐसा प्रतीत हुए बिना नहीं रहता ।।
(क) मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप के बदले में घोषीकरण
मध्यवर्ती 'क' के घोषीकरण के तो अनेक प्रयोग अर्धमागधी में मिलते ही हैं । 'त' और 'थ' के स्थान पर उनके धोष 'द' और 'ध' के प्रयोग भी अर्धमागधी में कहीं कहीं पर बच गये हैं, जैसे
(1) सरपादगं (शरपातकम् ), सूत्रकृ. 1.4.2.13. (आल्सडर्फ) ___ (2) भविदव्वं (भवितव्यम् ), इसिभासियाइं 3.1 (शुबिंग) (3) तधा, जधा, कंध, सव्वधा (तथा, यथा कथम् , सर्वथा ) के
लिए देखिए, इसिभासियाई 3.7,8; 25.14, 35.12; 38.29;
40.10; 45.25, रध (रथ ) (24.3) । __ 1 किसी तरह के अन्य संस्करण के उल्लेख के अभाव में सभी उदाहरण महावीर
जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित आगम-नयों से दिये गये हैं । 2. परवर्ती काल के प्राकृत साहित्य में अमुक अमुक प्राचीन (विभक्ति और प्रत्यय
वाले) रूप नये प्रयोगों के अनुपात में घटते जाते हैं और कभी कभी तो
सर्वथा लुप्त हो जाते हैं तथा उनका स्थान अन्य नये नये रूप ले लेते हैं। 3. Kleine Schriften : Ludwig Alsdorf, Wiesbaden,
1974 A. D. p. 200
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